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भाषण: बिदाईकी सभामें

कि हमें नीचा गिराने और दक्षिण आफ्रिकासे निर्वासित करनेके लिए जो प्रयत्न किये जा रहे हैं यह उनकी हद है। यह कानून, जैसा कि मैंने अन्यत्र कहा है, अविश्वासकी सन्तान है, इसका जन्म गुनाहके वातावरणमें हुआ और पालन-पोषण अहंकार और उद्धतताके वातावरणमें। यह कानून जिस समय आया उस समय मेरे समाजपर तरह-तरह के आरोप लगाये गये थे। ये सारे आरोप बादमें निराधार सिद्ध हुए। यह कानून हमारी अन्तरात्मावर किया गया प्रहार है और मैं तो कहूँगा कि धर्म शब्दके गम्भीरतम और उच्चतम अर्थमें वह हमारे धर्मपर किया गया प्रहार भी है, क्योंकि वह हमसे हमारा मानवीय गौरव छीनता है। हमारा विश्वास है कि ऐसे कानूनको स्वीकार करना हमारे लिए असम्भव है। हम अपनी फरियाद लेकर फिर सरकारके पास पहुँचे। यहाँ में यह भी कहना चाहूँगा कि इस कानूनका मंशा हमें सिर्फ नीचा गिराने और अपमानित करनेका ही नहीं है। जिन महोदयने यह कानून पेश किया था, उन्होंने एक दूसरे कानूनकी पूर्व सूचना भी दी है; इस भावी कानूनके साथ प्रस्तुत कानूनका उद्देश्य ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंके प्रवेशपर रोक लगाना भी है। यह कानून उपनिवेशीय कानूनोंके इतिहास में पहली बार जारी किया जा रहा है। मेरा समाज समझ गया है कि यह सब किसलिए किया जा रहा है। इस कानूनके द्वारा ट्रान्सवालकी सरकार उपनिवेशकी कानूनकी किताबमें इस सिद्धान्तको दाखिल करनेका प्रयत्न कर रही है। कि वह ब्रिटिश भारतीयोंका, ब्रिटिश भारतीयोंके नाते, ट्रान्सवालमें आनेका अधिकार खत्म करना चाहती है। हमें यह बात बहुत खली। हमें लगा कि इस कानूनको स्वीकार कर लेना और उपनिवेशमें बने रहना और ऐसे गम्भीर सवालपर सरकारको सिर्फ अर्जियाँ और प्रार्थनापत्र भेजकर ही सन्तुष्ट हो जाना हमारी राष्ट्रीय भावना और हमारे इन्सानी गौरवके लिए अपमानजनक है। और यही कारण है कि जब न्याय प्राप्त करने और इस अशुभ प्रतिबन्धको दूर करानेके हमारे सब प्रयत्न विफल हो गये तो मेरे मित्र और सहकारी श्री हाजी हबीबने जोहानिसबर्गके एक थियेटरमें ब्रिटिश भारतीयोंकी एक सार्वजनिक[१] सभामें उन्हें इस बातकी शपथ दिलाई कि वे इस कुटिल कानूनके आगे कभी झुकेंगे नहीं। इस सभामें करीब दो हजार आदमी उपस्थित थे और इस सभाने एक स्वरसे शपथपूर्वक यह घोषणा की कि यदि उक्त कानून साम्राज्य सरकार द्वारा मंजूर कर दिया गया तो वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे, बल्कि उसे तोड़ने के कारण उन्हें जो भी दण्ड दिया जायेगा सो सह लेंगे। आप लोग देख सकते हैं कि इसमें वैयक्तिक स्वार्थ सिद्ध करनेकी बात नहीं है। जबतक सवाल वैयक्तिक था, जबतक उससे हमें केवल आर्थिक हानि ही होती थी तबतक हम इन निर्योग्यताओंको सहते रहे; लेकिन जब हमारे राष्ट्रीय सम्मानपर चोट होने लगी, जब सवालका रूप यह हो गया कि प्रवेशके मामलेमें भी हमें यूरोपीयोंके बराबर नहीं माना जायेगा, और जब हमने देखा कि ट्रान्सवाल उपनिवेश उस नींवको ही खोदे डालता है जिसपर ब्रिटिश संविधान खड़ा है तब हमने महसूस किया कि हमारे अधिक साहसपूर्ण कदम उठानेका समय आ पहुँचा है। हमारे सामने दो रास्ते थे। एक तो यह था कि हिंसाका जवाब

  1. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ५३०-३४ और ४५४।