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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हिंसासे दिया जाये। हमने इस सिद्धान्तको अमान्य किया। और दूसरा रास्ता क्या था? समाजके नेताओंने यह निश्चय किया कि वे कोई हिंसात्मक तरीका न अपनायेंगे, लेकिन वे इस कानूनको स्वीकार न करेंगे। इसके बदले वे जो दण्ड मिलेगा, सहन करेंगे। इस तरीकेको एक बेहतर नाम न मिलने के कारण "पेसिव रेजिस्टेंस" की संज्ञा दी गई। मैं नहीं जानता कि इस नामके जो अर्थ में लगाना चाहता हूँ, उसकी व्याख्या किस प्रकार करूँ। मुझे इस बातकी चिन्ता रही है कि मैं अपने श्रोताओंके सम्मुख अपने लोगोंका रवैया किस प्रकार स्पष्ट करूँ। मुझे 'बाइबिल'की एक घटना स्मरण आती है—डॅनियलके जीवनकी एक घटना—और मैं कहूँगा कि ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीय वही करते रहे हैं जो डैनियलने उस समय किया था जब उससे मोडों और फारसियोंके कानून स्वीकार करनेको कहा गया था। मुझे यह कहते खेद होता है कि साम्राज्यीय सरकार इस अपराधमें भागीदार है। उसके [साम्राज्यीय सरकारके] लिए यह कानून स्वीकार करना जरूरी नहीं था। उसे यह मालूम होना चाहिए था कि इस कानूनसे ब्रिटिश भारतीयोंकी भावनाको गहरी ठेस पहुँचेगी, और उनके लिए आत्मसम्मानपूर्वक उसे स्वीकार करना असम्भव हो जायेगा। साम्राज्यीय सरकारको ट्रान्सवाल सरकारपर रोक लगानी चाहिए थी। और कुछ नहीं, तो ऐसे कानूनको स्वीकृति देनेसे पहले वह कुछ झिझक सकती थी। लेकिन दलगत राजनीतिके दबावके आगे वह झुक गई। मैं यह नहीं कह सकता कि किन मतलबोंसे उसने ऐसे कानूनको मंजूर किया होगा। भारतीयोंने अनुभव किया कि उसे स्वीकार करना असम्भव है, अतः वे सत्याग्रही बन गये। वस्तुतः, उन्होंने ट्रान्सवाल सरकारसे कहा: "हम लोग आपकी जेलें भर देंगे, और आप जो दण्ड देंगे, हम सहन करेंगे, लेकिन यह कानून स्वीकार करना हमारे लिए असम्भव है। मैं क्षणभर रुककर मनमें विचार करना चाहता हूँ कि ब्रिटिश संविधानके क्या अर्थ हैं। क्या वह संविधानमें विहित साम्राज्यके विभिन्न सदस्योंको समानताका अधिकार नहीं देता? मैं यह बात समझ सकता हूँ। मैं इस सिद्धान्तपर आधारित साम्राज्यको प्रजा बने रहनेको सहमत हो सकता हूँ, किन्तु अपने अनुभवके बलपर मैं कहना चाहूँगा कि मेरे लिए एक ऐसे साम्राज्य के प्रति निष्ठावान रहना नितान्त असम्भव है, जिसमें मेरे साथ साम्राज्यके किसी सदस्यकी ही भाँति समानताका व्यवहार न किया जाये, चाहे वह मात्र सिद्धान्त रूपमें ही हो। यदि मेरे साथ एक होनतर व्यक्ति-जैसा व्यवहार किया जाना है तो मैं बराबरीके दर्जेकी कभी कामना नहीं करूँगा। मैं एक ऐसे साम्राज्यका सदस्य होकर सन्तुष्ट रहूँगा जिसकी [गतिविधियोंमें] मेरा भी कुछ हिस्सा होगा, चाहे वह केवल एक प्रतिशत हो हो। किन्तु यदि मुझे गुलाम ही रहना है तो साम्राज्यका मेरे लिए कोई मतलब नहीं है। वैसी दशामें "ब्रिटिश प्रजा" की संज्ञा मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखती। उस कानूनके इसी प्रभावको मैं इस सभाके सामने स्पष्ट कर देना चाहता हूँ, इसे जिसे हम पिछले तीन बरसोंसे महसूस करते रहे हैं। ट्रान्सवाल उपनिवेशका यह कानून ब्रिटिश साम्राज्यकी जड़ोंको काटता रहा है, और इस प्रकारके कानूनमें निहित सिद्धान्तका प्रतिरोध करके हम न केवल ब्रिटिश भारतकी बल्कि [सम्पूर्ण] ब्रिटिश साम्राज्यकी सेवा करते रहे हैं। मुझे विश्वास है कि यह सभा असन्दिग्ध रूपम मुझे इस बातका भरोसा देगी कि ऐसा करके हम ठीक ही करते रहे हैं