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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह नहीं है कि उपनिवेशोंको अपने यहाँ आकर बसनेवालोंकी संख्या सीमित करनेका अधिकार नहीं होना चाहिए । स्वर्गीय सर हेनरी पार्कके कथनपर शंका नहीं की जा सकती, किन्तु जब आप एक बार लोगोंको उपनिवेशमें दाखिल कर लेते हैं तब उनके साथ कानूनकी दृष्टि से एक- जैसा बरताव होना चाहिए । अन्यथा, जैसा श्री डंकनने अभी हाल में ही कहा है, आप गुलामीकी स्थिति पैदा करेंगे, जिसका परिणाम यह होगा कि स्वामियों, अर्थात् शासक वर्ग, की दशा अन्तमें गुलामोंसे भी बदतर हो जायेगी । इतिहासमें ऐसे एक भी देशका उदाहरण नहीं मिलता जिसमें लोग एक स्वतंत्र राष्ट्र बननेके बाद भी गुलामोंके स्वामी बने रहे हों । यदि हमारे साथ गुलामों जैसा बरताव नहीं किया जाना है तो हमें ऐसे लोग चाहिए जिनकी उपस्थिति हमारे स्वतन्त्र विकास में सहायक हो । ये लोग निस्सन्देह वे हैं जो सुसंस्कृत और शिक्षित हैं । हम उन्हीं लोगोंकी एक अत्यल्प संख्याके उपनिवेशमें अबाध प्रवेशकी प्रार्थना कर रहे हैं ।

यह पूछने पर कि यदि उपर्युक्त सिद्धान्त स्वीकार कर लिये गये तो क्या भारतीय कठिन शैक्षणिक कसौटीकी शर्त मानने को तैयार होंगे, श्री गांधीने कहा :

यदि वर्तमान प्रवासी-प्रतिबन्धक कानून में (इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन लॉ एक्ट) उल्लिखित परीक्षाके अन्तर्गत एक उचित और कड़ो परीक्षाकी गुंजाइश नहीं है, हालाँकि मैं नहीं मानता कि बात ऐसी है, तो उसमें संशोधन किया जा सकता है, जैसा आस्ट्रेलियामें भी किया गया है । तब प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम के अन्तर्गत कानूनी समानता होगी, किन्तु उस अधिनियम के प्रशासन में अधिकारियोंको छूट होगो कि स्थितिको जरूरत देखते हुए परीक्षाकी कड़ाई में फेर-बदल कर लें । उदाहरणार्थ, आज नेटालमें यूरोपीयोंको लगभग बिना पूछताछ प्रवेश करने दिया जाता है, जबकि भारतीयोंकी कड़ी परीक्षा ली जाती है । यह प्रशासनिक भेदभाव तबतक रहेगा ही जबतक द्वेषभाव मौजूद है ।

यह बताये जानेपर कि श्री गांधीके वक्तव्यसे स्थितिमें सुधार नहीं होता, उन्होंने कहा कि उनकी इस स्थितिका आधार लॉर्ड मिलनरका किम्बलें में दिया गया यह भाषण था कि

डचेतर गोरों [यूटलैंडरों ] को और अधिक तंग न किया जाये ।

और श्री गांधीने आगे कहा :

अब हम यूटलैंडर -- अपने ही देशमें परदेशी हैं ।

[अंग्रेजी से]
'स्टार', ९-९-१९०८

१. पैट्रिक डंकनने महिला संघ ( लीग ऑफ विमेन) की रोजबैंक शाखामें बोलते हुए कहा था : “ किसी ऐसे देशमें, जहाँ माना जाता है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता है, आबादीके सबसे बड़े हिस्सेको राजनीतिक अधिकारोंसे बिलकुल वंचित रखना एक बड़ा ही कठिन मामला है । यह वस्तुतः गुलामीकी-सी स्थिति है । यह उच्च जातिके लिए उतना ही हानिकर है जितना हीन जातिके लिए । "

२. देखिए खण्ड ४, पृष्ठ ४०८ ।

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