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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


२. उत्तरमे मन्त्री सम्मानपूर्वक परमश्रेष्ठको यह सूचित करते हैं कि यह कथन सही है कि मो॰ क॰ गांधीको हथकड़ी पहनाकर प्रिटोरिया जेलसे प्रिटोरियाके मजिस्ट्रेटकी अदालत तक पैदल ले जाया गया। कैदियोंको पैदल ले जाते समय हथकड़ी पहनाना एक सामान्य नियम है, और जब जेलकी गाड़ी उपलब्ध न हो तब उन्हें पैदल ले जाया जाता है, जैसा कि विचाराधीन मामलेमें हुआ। यह नियम सजा याफ्ता यूरोपीय कैदियोंपर भी समानरूपसे लागू होता है और इसीलिए एक भारतीयको उससे बरी करनेका कोई कारण न था। श्री गांधीको अपनी बाहोंसे हथकड़ी छिपा लेने और हाथमें एक किताब लिए रहनेकी अनुमति दे दी गई थी, जिससे उनके हथकड़ी पहने होने की बात छिप गई थी।

[अंग्रेजीसे]

लुई बोया

कलोनियल ऑफिस रेकस २९१/१३७

परिशिष्ट ९

'रैंड डेली मेल' की टिप्पणी

इस महीनेकी २१ तारीखके 'रैंड डेली मेल' ने निम्नलिखित सम्पादकीय टिप्पणी लिखी है:

ट्रान्सवालके एशियाश्योंकी अपनी दूकानें बन्द कर देनेकी योजना निःसन्देह चतुराईसे भरी हुई है, किन्तु इससे इस देश में उनका पक्ष लोकप्रिय तो होनेसे रहा। इसका अर्थ केवल यही है कि कथित सत्याग्रह जोर-जबरदस्तीपर उतर आया है। इसमें सन्देह नहीं है कि बहुत-से भारतीयोंको उनके जाति-भाइयोंने डराया-धमकाया है और वे व्यापारिक परवाने लेने में डर रहे हैं; अब योजना यहाँतक बढ़ी है कि यूरोपीय व्यापारियों और ट्रान्सवालकी सरकारको भी आतंकित किया जाये। आशा है कि श्री हॉस्केन, 'ट्रान्सवाल लीडर' और इस उपनिवेशमें जानबूझकर कानून तोड़नेके अन्य हिमायती इस तौर-तरीकेको ठीक मानते होंगे। किन्तु जहाँतक अधिकांश जनताका सवाल है हमें निश्चय ही लगता है, कि इस तरहका रवैया एशियाइयोंके पक्षके प्रति रही-सही सहानुभूतिको भी खत्म कर देगा। कुछ भी हो, हमें यकीन है कि ट्रान्सवाल सरकार ऐसे तरीकोंसे डरकर झुकेगी नहीं। हम यह आशा भी करते सम्बन्धित थोक व्यापारी कानून भंग करनेवाले भारतीयोंके हाथका खिलौना नहीं बनेंगे। हम नहीं समझते कि श्री गांधीकी क्षुद्र योजनाके जालमें ज्यादा एशियाई फँसेंगे और जब सत्याग्रह ऐसा अजीब नया रूप ग्रहण कर लेगा तो उसे बढ़ानेके लिए अपना सर्वनाश कर लेंगे। हमारा विश्वास है कि सख्त रुख अपनानेसे यह षड्यन्त्र तुरन्त विफल हो जायेगा। इसी बीच सरकारको घरना देनेके उस ढंगपर थोड़ा और ध्यान देना चाहिए जिसके डरके मारे कानूनके अनुसार चलनेवाले बहुत-से भारतीय कानूनका यथार्थ पालन नहीं कर पाते।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३०-१-१९०९