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परिशिष्ट ११

'टाइम्स' को यूरोपीयोंका पत्र[१]

सेवा में


सम्पादक
'टाइम्स'
लन्दन


महोदय,

इस पत्रपर जिन लोगोंके हस्ताक्षर हैं उनमें से ज्यादातर दक्षिण आफ्रिका में बहुत सालसे रहनेवाले उपनिवेशी हैं। इनमें से एक ट्रान्सवाल विधानसभा के सदस्य हैं, कुछ विभिन्न ईसाई सम्प्रदायों के पादरी हैं और कुछ किसी-न-किसी ऊँचे धन्धेमें लगे हैं या कोई व्यापार व्यवसाय करते हैं। हम आपको यह पत्र लिख रहे हैं, इसका कारण जिस प्रश्नको ट्रान्सवालका एशियाई प्रश्न कहा जाता है उसकी मौजूदा हालत के बारेमें हमारी चिन्ताकी भावना है। हम इस स्थितिको साफ-साफ मंजूर करते हैं कि इस उपनिवेशमें एशियाश्योंका और अधिक आगमन ज्यादासे-ज्यादा कडाईसे सीमित रखा जायेगा और यह स्थिति स्वयं एशियाइयोंने सार्वजनिक रूपसे मंजूर कर ली है।

लेकिन हालकी घटनाओंसे हमने यह देख लिया है कि अगर मौजूदा हालत जल्दी खत्म न की जा सकी तो साम्राज्यकी सुख-समृद्धि, जिसे हम हृदयसे चाहते हैं, खतरेमें पड़ जायेगी। जो भारतीय ट्रान्सवालके अधिवासी हो चुके हैं वे आज भारतमें रहनेपर साम्राज्यके लिए गम्भीर खतरेका मूल बन सकते हैं। इसका कारण यह है कि वे इस उपनिवेशसे अपने हृदयोंमें ताजके अधीनस्थ अपने यूरोपीय सहप्रजाजनोंके कठोर व्यवहारकी स्मृति लेकर जायेंगे, और उसे अपनी मातृभूमिमें हमदर्द लोगोंके बीच प्रकाशित करनेमें वे देर न करेंगे।

यह बात शायद बहुत आसानीसे मान ली गई है कि ट्रान्सवालकी गोरी आबादीकी राय संयुक्त रूपसे एशियाश्योंकी माँगोंके विरुद्ध है। लेकिन हमारा विश्वास है कि समाजके यूरोपीय वर्ग में एक खासी बड़ी संख्या ऐसे लोगोंकी भी है जिनकी सहानुभूति एशियाइयोंके साथ है और जिन्हें एशियाइयों के प्रति किसी प्रत्यक्ष लाभदायक उद्देश्यके बिना ऐसा व्यवहार किया जानेपर दुःख होता है और चोट लगती है, यद्यपि ऐसे यूरोपीय हमददौंकी संख्या ज्यादा नहीं है, जो अपने विचार खुल्लमखुल्ला प्रकट कर सकें। एशियाई जो माँगें करते हैं हमने उनकी जाँच सावधानीसे कर ली है और हमें यह इतमीनान करने के मौके मिले हैं कि ये माँग उचित हैं और इतनी सामान्य हैं कि उनको मंजूर कर लेनेसे उपनिवेशको कोई खतरा नहीं है, इसलिए वे मंजूर की जा सकती हैं। अमली तौरपर ये माँगें केवल दो हैं। पहली माँग यह है कि संसदके अगले अधिवेशनमें घृणित एशियाई कानून-संशोधन अधिनियमको, जिसे उपनिवेश-सचिवने अनुपयोगी घोषित कर दिया है, रद करनेके लिए सरकार एक कानून पेश करे। यह कानून संसदने एशियाई नेताओंसे सलाह किये बिना सर्वसम्मतिसे स्वीकृत किया था।

सब लोगोंका खयाल यह था कि ट्रान्सवालमें एशियाई बड़ी संख्या में गैरकानूनी तौरपर आ रहे हैं। लेकिन जहाँतक अमली उद्देश्योंकी पूर्तिका सम्बन्ध है, इसकी जगह नया वैधीकरण अधिनियम (वैलिडेशन ऐक्ट) बन गया है, जिसे आम तौरसे एशियाई मंजूर करते हैं। उससे वह कलंकका टीका भी मिट जाता है, जो उन्हें लगता हैं,

  1. यह इंडियन ओपिनियन में ६-२-१९०९ को उद्धृत किया गया था और इसपर "जोहानिसबर्ग, नवम्बर, १९०८" की तारीख पड़ी हुई थी।