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परिशिष्ट

तबतक उनके माथेपर लगा हुआ है, जबतक कानूनकी किताब में पुराना कानून मौजूद है। रिपोर्टके अनुसार, पिछली ५ फरवरीको रिचमंड, जोहानिसबर्ग में भाषण देते हुए जनरल स्मट्सने यह कहा था:

"वह कानून इस तरहका है कि वह एक बार लागू किया जाये, एक बार असर करे और हमेशा के लिए असर करे। वह कानून बहुत जोखिम-भरा है, क्योंकि अगर एशियाई इस अवधिमें पंजीयन कराने न आयें तो पंजीयन असम्भव हो जायेगा और कानून बेकार हो जायेगा। हुआ क्या है? हम पूर्ण गतिरोधकी स्थिति में हैं। अब हम इसी स्थितिमें पहुँच गये हैं। इस गतिरोधके लिए सरकार या कोई दल दोषी नहीं है, बल्कि इसका कारण यह है कि एक कानून पास किया जा चुका है जिसमें भारतीयका सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है। भारतीयोंने यह सहयोग नहीं दिया। वे बिल्कुल अलग खड़े हो गये हैं।"

इस तरह पुराने एशियाई कानूनको उपनिवेश-सचिवने अनुपयोगी तो घोषित कर ही दिया है; इसके अलावा वह एक हाल्के बने कानूनसे, जो आम तौरपर आपत्ति-रहित है, रद भी हो गया है, इसलिए अब किसी के लिए उस पुराने कानूनका कोई वास्तविक उपयोग नहीं है। एशियाश्योंने उस आरोपपर हमेशा नाराजी जाहिर की है जिसपर पुराने कानूनकी नीति आधारित है। इसीलिए वे यह भी अनुभव करते हैं कि जबतक वह कानून है तबतक उनकी हालत खतरनाक ही है। हमारी रायमें इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उन्होंने कानून रद किया जानेका विश्वास होनेपर हो स्वेच्छया पंजीयन कराया था। इसलिए वे यह अनुभव करते हैं कि उन्होंने अपने स्वेच्छागत दायित्वको निभा कर जो ईमानदारीका काम किया है उसकी एवज में सरकारकी ओरसे वैसी कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

दूसरा मुद्दा यह है कि एशियाई सामान्य प्रवासी कानूनके अन्तर्गत उपनिवेशमें शिक्षित भारतीयों के प्रवेशके अधिकारको मान्य कराना चाहते हैं। यह स्वीकार किया जाता है कि अकेले प्रवासी कानूनसे उपनिवेश में शिक्षित एशियाइयोंके प्रवेशपर रोक नहीं लगती। एशियाई स्वयं इस बातके लिए तैयार हैं कि सरकार एशियाई प्रवासियोंकी शिक्षा-परीक्षा ऐसी कर दे कि प्रशासनिक तरीकोंसे प्रवास सीमित हो जाये और उपनिवेशमें ऊँचे धन्धोंके लोगों या विश्वविद्यालयों के स्नातकोंके सिवा दूसरे लोगोंका आना असम्भव हो जाये। इसके सिवा उन्होंने सार्वजनिक रूपसे यह बात भी मान ली है कि सरकार अपनी व्यवस्थासे ऐसे आनेवाले लोगोंकी संख्या सालमें छः तक सीमित रखे। उनका कहना यह है कि समय-समयपर नये किये जानेवाले अस्थायी परमिटोंकी व्यवस्था अंग्रेजोंके लिए अशोभनीय है और उससे हमारी जरूरतें पूरी नहीं हो सकतीं। इसका कारण यह है कि ये परमिट जिन लोगोंको दिये जायेंगे उनका उपनिवेशमें प्रवेश रियायती होगा, अधिकार के रूपमें नहीं। वे ऐसे निषिद्ध प्रवासी होंगे जिनकी सजाएँ स्थगित कर दी गई हों; फलस्वरूप वे अपने धन्धे ठीक तरहसे न चला सकेंगे। हम उनकी इस बात से सहमत हैं। हम अनुभव करते हैं कि स्वयं एशियाइयों की सुख-सुविधा के लिए इन थोड़े-से पढ़े-लिखे एशियाश्योंको निर्वाध आने देना आवश्यक है। यह यूरोपीय आबादी के लिए तो और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

एक समाजके रूपमें विकासके साधनोंके अभाव में एशियाई लोग, कुछ समयमें, गोरे उपनिवेशियों के लिए खतरा बन जायेंगे क्योंकि अपने स्वाभाविक नेताओंके न मिलने पर उनकी दशा इतनी अवनत हो जायगी कि जिसकी कल्पना मात्रसे भय होता है।

दूसरी सब बातें सिर्फ तफ्सीलकी हैं और आसानीसे तय की जा सकती हैं। इसलिए इन दो मुद्दोंको मंजूर कराने के लिए ही एशियाई अनाक्रामक प्रतिरोधकी दृढ़ नीतिपर चल रहे हैं। अपने कामोंसे सबसे ज्यादा छानि उन्होंने ही उठाई है। चूँकि धारासभामें उनका कोई प्रतिनिधित्व नहीं है और वे ऐसे अल्पसंख्यक हैं, जिनकी दूसरी तरह भी कोई सुनवाई नहीं होती और धारासभाने करीब-करीब हर मौकेपर उनके विचारोंकी उपेक्षा की है, इसलिए उन्होंने अपनी शिकायतें दूर करानेके लिए जो रास्ता अख्तियार किया है उसके सिवा कोई दूसरा रास्ता ढूँढ़ना मुश्किल है।

यह कहा गया है कि एशियाझोंने मौजूदा संघर्षके जिन कष्टोंपर इतनी जोरदार आपत्ति की है, वे बहुत कुछ झूठे हैं। हम इस रायका समर्थन करने में असमर्थ हैं। हमारे खयालमें एशियाइयोंकी शिकायतें कुल मिलाकर ठीक हैं। इस दुर्भाग्यपूर्ण गलतफहमीके कारण उन्हें बहुत कठिनाइयों हुई हैं और कष्ट उठाने पड़े हैं। जिन लोगोंको