पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/६२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उक्त निर्णयके आधीन पिछले ढाई वर्षोंमें २,५०० भारतीयोंने कैदकी सजा भोगी है। सजा अधिकांशतः सख्त रही है। कई घर उजड़ गये हैं, कई परिवार संघर्ष में बर्बाद हो गये हैं। रोती हुई पत्नियों और माताओंको अपने पीछे छोड़कर पिता और पुत्र साथ-साथ जेल गये हैं। कई परिवारोंका भरण-पोषण हमारे जमा किये हुए चन्देकी रकमसे किया जा रहा है। इस समय करीब दो सौ भारतीय अन्तरात्माके हेतु जेल भोग रहे हैं।

कठिनाइयाँ इतनी प्रबल हैं कि बहुतोंने तो थक कर घुटने टेक दिये हैं। दूसरोंने उपनिवेश छोड़ दिया है, और आज शायद भूखों मर रहे हैं। तीन सौसे अधिक कृतसंकल्प लोगोंका एक दल सक्रिय संघर्ष जारी रख रहा है। कुछ तो पाँच-पाँच बार ट्रान्सवालकी जेलोंसे हो आये हैं।

निश्चय करनेवाले लोगोंमें भारतीय समाजके सभी वर्गोंके लोग हैं। हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख और ईसाई, सभी भारतकी ओरसे लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे व्यापारी जिन्होंने कभी शारीरिक परिश्रम नहीं किया है और जो सुख-वैभवकी गोद में पले हैं, [आज] पत्थर तोड़ रहे हैं, या भंगीका काम कर रहे हैं अथवा कूड़ा ढोनेवाली गाड़ीपर मिट्टी ढो रहे हैं, और साधारण मकईका दलिया और उबले आलू अथवा चावल और घी खाकर रह रहे हैं।

हम भारतसे सहायता के लिए आगे आनेका अनुरोध करते हैं और भारत सरकारसे इस कलंकरूप रंगभेदको हटाने की माँग करते हैं। जबतक ट्रान्सवालके कानूनोंसे रंगभेदका कलंक हटाया नहीं जाता तबतक उपर्युक्त भारतीयोंका दल मृत्युपर्यन्त कष्ट सहन करेगा। हम राहतकी प्रार्थना करते हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३-७-१९०९

(३) प्रार्थनापत्र: बंगाल चैम्बर ऑफ़ कॉमर्सको

सेवा में


अध्यक्ष,
बंगाल चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स,
कलकत्ता


महोदय,

हम निम्न-हस्ताक्षरकर्ता ट्रान्सवालवासी ब्रिटिश भारतीय भारतके गोरे समाजके नेताकी हैसियतसे आपके सामने अपना निवेदन प्रस्तुत करना चाहते हैं। हमारा यह निवेदन एशियाई संघर्ष के विषय में है, जो इस उपनिवेशमें पिछले ढाई वर्षोसे चल रहा है।

इस संघर्षका पूरा इतिहास बताकर आपको परेशान करनेकी हमारी इच्छा नहीं है। स्थानीय सरकार और ब्रिटिश भारतीयोंके बीच विवादका मुद्दा यह है कि जहाँतक प्रवासका सम्बन्ध है, उपनिवेशके कानूनोंमें जाति-विषयक निर्योग्यता हो अथवा नहीं। स्थानीय संसदने दो कानून बनाये। एक कानून १९०७ का एशियाई पंजीयन अधिनियम कहलाता है और दूसरा उसी वर्षका प्रवासी अधिनियम। इन कानूनोंके अन्तर्गत कोई भी ब्रिटिश भारतीय, उसकी शैक्षणिक योग्यता चाहे कुछ भी हो, यदि वह पहलेसे यहाँका अधिवासी नहीं है तो, केवल जन्मसे भारतीय होने अथवा भारतीय माता-पिताकी सन्तान होनेके कारण इस उपनिवेशमें प्रवेश करते ही निषिद्ध प्रवासी हो जाता है। यह कानून ब्रिटिश उपनिवेशोंमें कहीं नहीं है। अतः हम लोगोंने अपने अन्य प्रयत्न विफल होनेके बाद, सार्वजनिक रूपसे गम्भीरतापूर्वक शपथ ली है कि हम उपर्युक्त पंजीयन कानून (रजिस्ट्रेशन लॉ) तथा संघर्ष के दौरान १९०८ में बनाया गया दूसरा कानून तबतक स्वीकार नहीं करेंगे जबतक १९०७ का पंजीयन कानून रद नहीं कर दिया जाता और जातिगत कलंक मिट नहीं जाता।