पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/६२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८६
सम्पूर्ण गांधी वाङमय


चरित्र-नायक, श्री गांधी की इस देशके उत्तरदायी लोगों तक ने मामूली दर्जेका आन्दोलनकारी कहकर निन्दा की है, उनके कार्योंको भद्दे ढंगका कानून भंग कहकर गलत रूपमें पेश किया गया है, और यह कहनेवाले भी कम नहीं हैं कि उनका हेतु स्वार्थ-सिद्धि और अर्थ-लाभ है।

अगर किसी निष्पक्ष व्यक्तिको ऐसा भ्रम हो गया हो तो इस पुस्तकको पढ़नेसे उसके दिमाग में से ऐसे खयाल निकल जायेंगे। व्यक्तिको अच्छीतरह समझ लेनेका अर्थ घटना क्रमको ठीक-ठीक समझ लेना है।

ट्रान्सवालका भारतीय समाज एक अधिकारकी रक्षा करने और एक अपमानको दूर कराने के लिए लड़ रहा है। क्या हम अंग्रेजोंकी हैसियतसे उन्हें इसके लिए दोषी ठहरा सकते हैं? उन्हें न तो मत देनेका अधिकार प्राप्त है और न प्रतिनिधित्व। ऐसे लोगों के लिए हिंसा और अराजकताके अतिरिक्त विरोधका जो एक ही तरीका बच जाता है वह अनाक्रामक प्रतिरोध ही है। क्या हम उसके लिए उन्हें दोषी ठहरा सकते हैं? वे स्वार्थ-भावसे करोंका विरोध या चालाकीसे नये राजनीतिक अधिकार लेनेका उद्योग नहीं कर रहे हैं। जो चीज उनसे छीन ली गई है, अर्थात् उनका जातीय सम्मान, उसीको वे फिरसे प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। जो व्यक्ति उन्हें दोषी ठहराता है वही बताये कि अगर वह ऐसी स्थिति में होता तो क्या करता। क्या हममें कोई भी ऐसा व्यक्ति है जो कानूनकी मर्यादा रखने के लिए अपने अधिकारोंके अपहरणको और राष्ट्रीय अपमानको विरोध किये बिना चुपचाप स्वीकार कर लेता?

उपनिवेश की सरकार इन शिकायतोंको दूर कर सकती है। इसमें उसे सिद्धान्त या सम्मानका तनिक भी त्याग नहीं करना पड़ता। क्या वह इस मौकेपर, जब एकीकरणका प्रयत्न किया जा रहा है, संघ बन रहा है और भविष्यके सम्बन्धमें नई आशा उत्पन्न हो रही है, साम्राज्यकी खातिर इन शिकायतों को दूर करेगी। यही प्रश्न है जिसके उत्तरकी हम इस समय उत्सुकतासे प्रतीक्षा कर रहे हैं। [दूसरे शब्दोंमें] प्रश्न यह है कि जिन भारतीयोंके घर ट्रान्सवालमें हैं, जिन्होंने दक्षिण आफ्रिकाके विकासमें एक वर्गक रूपमें सहायता दी है और जो ब्रिटिश नागरिक हैं और महामहिम सम्राट के प्रजाजन हैं, उन्हें दक्षिण आफ्रिकी संघ बननेकी आम खुशीमें खुश होने दिया जायेगा या नहीं।

उपनिवेश की सरकारको केवल एक ऐसे कानूनको रद करना है, जिसका उद्देश्य पूरा हो चुका है, जो अब बेकार और अमलके अयोग्य है और जिसे सरकार स्वयं मुर्दा कानून बता चुकी है। इसके सिवा, उसे एक दूसरे कानूनमें थोड़ा-सा सुधार करना है जिससे इन कानूनोंमें जो स्पष्ट जातीय भेदभाव है वह दूर हो जाये; और जहाँतक अमलका सम्बन्ध है, हकके पुराने सिद्धान्तके आधारपर उपनिवेशमें हर साल ज्यादासे-ज्यादा छः भारतीय आ सकें। बस, इसीसे प्रश्न हल हो जायेगा। तब भारतीयोंके लिए इस संघर्षको, जिसका अर्थ है उनके लिए यन्त्रणाएँ और बर्बादी तथा उपनिवेशके लिए लोकापवाद और कलंक, जारी रखनेका दूसरा कोई कारण न रह जायेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी और कोई शिकायतें रहती ही नहीं। उनपर पिछले ट्रान्सवाल गणतन्त्रकी लगाई निर्योग्यताएँ तो रहेंगी ही, जिनके कारण उन्हें मताधिकार नहीं दिया जा सकता, वे जमीनें नहीं रख सकते हैं और बस्तियोंमें अलग बसाये जा सकते हैं।

इस देशके लोग यह अनुभव नहीं करते कि भारतीयोंसे ट्रान्सवालमें पिछले तीन वर्षों में महामहिम सम्राटके सभ्य प्रजाजनों-जैसी शर्तोंपर प्रवासका कानूनी अधिकार पहली बार छीना गया है। उन्हें यह अधिकार सिद्धान्त रूपमें ही सही, पहले प्राप्त था और साम्राज्यके दूसरे भागोंमें अब भी प्राप्त है। यह सीधा-सादा, लेकिन चौंकादेनेवाला तथ्य है, जिसे लोगोंको समझना चाहिए। अगर यह तथ्य समझ लिया जाता तो संसदके दोनों सदनोंमें सभी दलोंके लोग इसका विरोध करते, क्योंकि उन्होंने दक्षिण आफ्रिकाके नये संविधानमें रंग-सम्बन्धी भेदभाव रखनेपर अपनी गहरी नापसन्दगी जाहिर की है और उसपर खेद प्रकट किया है। इसमें शक नहीं है कि एक उदार दलकी शासन व्यवस्थामें रंगके कारण लोगोंके मताधिकारोंका यह अपहरण, प्रजातीय कारणोंसे ब्रिटिश नागरिकताके प्रारम्भिक अधिकारोंसे लोगोंका इस प्रकार वंचित किया जाना सम्राट के शासन में एक प्रतिगामी कदम है, जिस शायद दूसरी मिसाल मिले। जिन सिद्धान्तोंके आधारपर साम्राज्यका निर्माण किया