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परिशिष्ट

गया है और जिनके आधारपर हम उसके अस्तित्वका औचित्य सिद्ध किया करते हैं और जो उस सच्चे उदारवादके सिद्धान्त हैं, जिसे अबतक सब दलोंके अंग्रेज़ मानते आये हैं, उनकी इतनी बड़ी अवहेलना शायद इसके पहले कभी नहीं की गई थी। लेकिन हमारी जातिका राजनीतिक आचार-धर्म जितना नये दक्षिण आफ्रिकाके विधानमें भंग हुआ है उससे ज्यादा हुआ है ट्रान्सवाल द्वारा स्थापित "रंग-प्रतिबन्ध" के मामलेमें। अगर यह बात संसद और अखबारोंको दिखाई नहीं देती और अगर वे ऐसी महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रियाको भी ध्यान देने योग्य नहीं समझते, तो ऐसा लगता है कि साम्राज्यके शासनकी हमारी प्रतिभाका ह्रास आरम्भ हो गया है।

अगर अन्तमें यह सिद्ध हो जाये कि हम ब्रिटिश झंडेके नीचे ब्रिटिश भारतीयोंकी रक्षा नहीं कर सकते और अपने बादशाह और राजनीतिज्ञोंके वचनोंको भी पूरा नहीं कर सकते तो इसका नतीजा भारतमें क्या होगा? जो लोग भारतको जानते हैं उन्हें इसके परिणामोंके बारेमें कोई शक नहीं होगा। अगर भारत चिढ़कर, परेशान होकर और अपमानित होकर इस महान साम्राज्य संस्थामें शामिल न रहना चाहे और बिगड़ उठे तब हम क्या करेंगे? निश्चय ही इससे साम्राज्यका खात्मा शुरू हो जायेगा।

संक्षेपमें ये ही कारण हैं "जिनसे ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंका" यह प्रश्न साम्राज्यका एक बड़ा प्रश्न ठहरता है, न कि एक ऐसे स्वशासित उपनिवेशका आन्तरिक प्रश्न-मात्र, जिसमें मातृदेशको हस्तक्षेपका अधिकार या कारण न हो।

यह मामला हमारे प्रजातीय सम्मानको ठेस पहुँचानेवाला है, और सारे साम्राज्यकी एकताको प्रभावित करता है; इसलिए इसका सम्बन्ध साम्राज्यके हर हिस्सेसे है। इसके अलावा, यह निश्चित है कि अगर साम्राज्यके इस केन्द्र-स्थलमें सिद्धान्तको छोड़कर किसी भी बातको स्वीकार किया गया या उसकी उपेक्षा की गई तो उससे दूसरे स्थानोंके लिए बाहर भी और भीतर भी एक बुरी मिसाल कायम होती है, और तब सारी व्यवस्थाको कोई बड़ा आघात नैतिक पतनको रोकना सम्भव लगे बिना नहीं होगा।

इसलिए इस मामलेसे उन सभी लोगोंका सम्बन्ध है जो "साम्राज्यकी दृष्टि से" सोचते हैं, और इसपर पहलेसे ज्यादा साफ-साफ सोचनेकी जरूरत है।

इस प्रश्नको तात्कालिक लाभकी दृष्टिसे तय नहीं करना चाहिए; इसमें तो अमल मुख्य बन जाता है और सिद्धांतकी उपेक्षा कर दी जाती है इसे तो हमारी प्रजातिकी नैतिकताके मूलभूत सिद्धान्तोंके आधारपर तय किया जाना चाहिए। किसी सिद्धान्त में, अमल करते वक्त देश और काल्की जरूरत के मुताबिक फेरफार किया जा सकता है; लेकिन अगर सिद्धान्तको ही उठाकर ताकपर रख दें तो अमलपर नियंत्रण रखनेका कोई साधन नहीं रह जाता।

अब भी उम्मीद है कि खतरेको समझा जायेगा और उसे टाला जायेगा; क्योंकि यह लिखते वक्त भी मुझे ज्ञात हुआ है कि ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय प्रश्नको हल करनेके लिए बातचीत अब भी चल रही है। मेरी हार्दिक कामना है कि श्री गांधी तथा उनके साथी देशभाई अपने उस उद्देश्यकी पूर्तिमें, जिसके लिए उन्होंने इतनी बहादुरीसे संघर्ष किया है और इतना त्याग किया है, इस पुस्तकके प्रकाशनसे पूर्व सफलता प्राप्त करें।

ऍस्टहिल

मिल्टन अर्नेस्ट हॉल,


बेडफोर्ड,


२६ अगस्त, १९०९
[अंग्रेजीसे]
'एम॰ के॰ गांधी: ऐन इंडियन पेटिअट इन साउथ आफ्रिका'