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परिशिष्ट १९

वक्तव्य: नेटाल शिष्टमण्डलकी तरफसे

अगस्त १२, १९०९

मैं और मेरे साथी प्रतिनिधि श्रीमानको धन्यवाद देते हैं कि श्रीमानने आज यहाँ हमें भेंटका अवसर दिया। जिस कारणसे हम लोग यहाँ आये हैं वह यह है कि हम उन कुछ गम्भीर कष्टोंको आपके सामने रखें जिन्हें हम नेटाल उपनिवेशमें भोग रहे हैं।

इस वक्तव्य में जिन मामलोंका उल्लेख किया गया है, उनमें से तीन सर्वाधिक महत्वके मामलोंकी संक्षेपमें चर्चा आपको पहले भेजे गये एक वक्तव्यमें कर दी गई है।

नेटालकी ब्रिटिश भारतीय आबादी बहुत ही बड़ी है। वह बाकी उपनिवेशोंकी कुल ब्रिटिश भारतीय आबादीसे भी ज्यादा है। उसके निहित अधिकार और स्वार्थ भी बहुत बड़े हैं। जहाँतक १८९७ के परवाना कानूनसे हुई तकलीफोंका सम्बन्ध है, जिस ढंगसे परवाना अधिकारी ब्रिटिश भारतीयोंको परवाना देनेसे इनकार करने में अपने विवेकका उपयोग करते रहे हैं, उससे हमारे व्यापारी समाजमें बहुत ही भय उत्पन्न हो गया है। इसलिए यह हमारे लिए जीवन-मरणका प्रश्न है, क्योंकि हम नहीं जानते कि इसके बाद किस अभागे व्यापारीको—चाहे वह कितने ही लम्बे अरसेसे व्यापार क्यों न कर रहा हो—परवानेसे वंचित किया जायेगा। इसका अर्थ हुआ लगभग विनाश, जिसके कुछ ज्वलन्त उदाहरण उक्त वक्तव्यमें दिये गये हैं।

श्री चैम्बरलेनको, जो उस समय उपनिवेश मन्त्री थे, इसके नितान्त एकतरफा प्रयोगके विरुद्ध जोरदार आवाज उठानी पड़ी थी। इस विरोधका भी उक्त वक्तव्य में थोड़ा हवाला दिया गया है। उपनिवेश कार्यालय में उनके बादके सभी मन्त्रियोंका यही रुख रहा है। परवाना अधिकारियोंने कुछ ब्रिटिश भारतीयोंको परवाने देनेसे इनकार करनेके कारण ये बताये: (१) "लोगोंकी भावनाको सन्तुष्ट करना," अर्थात्, प्रतिस्पर्धी यूरोपीय व्यापारियोंकी भावनाको (जिनके लिए हमारे चिर-उपाजित हितोंका बलिदान किया जाता है); और (२) उग्र पूर्वाग्रहके कारण, जो स्वाभाविक न्यायकी अदालतों (कोर्ट ऑफ इक्विटी) में ठीक नहीं माना जायेगा।

कुछ यूरोपीय व्यापारियोंको हमसे यह शिकायत है कि व्यापारमें हम बेईमानीसे होड़ करते रहते हैं। यह शिकायत केवल गलत ही नहीं है, वरन् सभी सुसभ्य देशोंमें प्रतिस्पर्धाको बहुत ही स्वस्थ माना जाता है। हम किस प्रकार रहते व खाते-पीते हैं, इस प्रश्नपर काफी गलतफहमी है। हमारे व्यापारके स्थानोंका निरीक्षण किया जा सकता है। वे यूरोपीय व्यापारिक स्थानोंसे अच्छे ही उतरते हैं।

हम ऐसे प्रतिबन्धक कानूनोंके बोझसे दबे हैं कि हमारा भाग्य करीब-करीब अधरमें लटका हुआ है—खासकर उनका जिनके उपनिवेश में निहित स्वार्थ हैं।

ब्रिटिश भारतीय व्यापारी जमीन खरीदते हैं, उनपर व्यापारके लिए दूकानें बनाते हैं, कर देते हैं, चुंगी आदि अदा करते हैं, आदि। छोटे सौदागर अपना माल स्थानीय यूरोपीय व्यापारियोंसे खरीदते हैं।

ब्रिटिश भारतीयोंके परवानोंको उसी स्थितिके अन्य लोगोंको हस्तान्तरित करनेसे इनकार करना बहुत ही अन्यायपूर्ण है। परवाना अधिकारी इतने ही से सन्तुष्ट नहीं होते, वे और आगे बढ़कर रिश्तेदारों के बीच तथा पुत्रोंको या साझेदारोंको भी परवाना हस्तान्तरित करनेसे इनकार करते हैं।

नेटालको हमने अपना देश बना लिया है और हममें से कईके बच्चोंने भारत देखा भी नहीं है। हमें उनके भविष्यकी बड़ी ही चिन्ता है; क्योंकि यहाँतो हमारा ही भविष्य सुरक्षित नहीं है, हालाँकि गुजरे वक्तमें हमने उपनिवेशका व्यापार आगे बढ़ाने में बड़ी मदद की है।