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परिशिष्ट


मैं यह कह दूँ कि हम राजनीतिक मताधिकारपर बहुत जोर नहीं दे रहे हैं, हालाँकि भारतमें हमें यह अधिकार एक भिन्न तरीकेसे मिला हुआ है। उदाहरणके लिए आपका विनम्र निवेदनकर्ता भारत में म्यूनिसिपल कौंसिलर था, स्थानीय बोर्डका सदस्य था, स्कूल बोर्डका अध्यक्ष था और नगरपालिकाकी ओरसे बम्बईकी विधानसभाके एक सदस्यके निर्वाचनके लिए चुनाव में मतदाता चुना गया था।

आम जनता के हितोंमें हमारी दिलचस्पी अनगिनत अवसरोंपर प्रकट हो चुकी है। बोअर युद्धमें और हालके वतनी विद्रोहके समय हमने डोलीवाहक दल मुहैया किया। इसके अलावा, जब जरूरत हुई, हम हमेशा जनसेवा में आर्थिक या अन्य सहायताके लिए तैयार रहे। पिछले बोअर युद्धके दौरान अनेक नगरपालिकाओंने राहत कोष शुरू किये थे, जिससे बहुत बड़ी संख्या में गोरोंने और ऐसे लोगोंने भी फायदा उठाया था जो ब्रिटिश प्रजा नहीं थे। सभी भारतीय शरणार्थियोंको हमारे समाजने ही आश्रय दिया था। मैरित्सबर्ग में हमारे एक साथी प्रतिनिधि श्री आमोद भायातने तथा कुछ अन्य लोगोंने उनका भरण-पोषण किया था तथा अन्य लोगोंकी भी मदद की थी। डर्बनमें हमने सहायता कोष से कोई भी मदद कभी नहीं माँगी, और डर्बनके तत्कालीन मेयर श्री निकोल, सी॰ एम॰ जी॰ ने सार्वजनिक रूपसे इसकी प्रशंसा की थी।

उपनिवेश कार्यालय द्वारा किये गये तमाम विरोधों और न्यायपूर्ण बरताव करनेकी हमारी फरियादोंके बावजूद कोई भी राहत अभी तक नहीं दी गई है।

आन्दोलन करना हमारा धन्या नहीं है, क्योंकि हम पैदाइश से व्यापारी हैं, और हम जो माँगते हैं वह है केवल न्याय। यदि यह न्याय हमें अब भी नहीं दिया गया तो हमारे लिए यह कठिन होगा कि अपने लोगोंसे कुछ कह सकना कठिन होगा।

हम माने हुए राजभक्त और कानून माननेवाले लोग हैं, और हमारी आकांक्षा है कि १८९७के विक्रेता परवाना कानून (डीलर्स लाइसेंस ऐक्ट) नं॰ १८ में एक संशोधन कर दिया जाये। इसके लिए हमारा समाज लॉटे महोदयका आभारी होगा।

१८९५ के गिरमिटिया प्रवासी कानूनके संदर्भ में निवेदन है कि भारतीय मजदूरोके आगमनसे पूर्व नेटालकी दशा दिवालियेकी-सी थी, परन्तु उनके आनेके बाद समृद्धि होने लगी और देशकी आर्थिक नींव मजबूत हो गई। उपनिवेशके मुख्य और लगभग सभी उद्योग अपने अस्तित्वके लिए इस तरहके मजदूरोंपर निर्भर हैं। इसका उल्लेख भी वक्तव्य में किया गया है। गिरमिटकी समाप्तिके बाद, और अपने जीवनका सबसे अच्छा समय उपनिवेशके हित में लगा देनेके बाद उम्र तथा लिंगका विचार किये बिना उन्हें सालाना ३ पौंडका कर अदा करके वहाँ बसनेकी अनुमति दी जाती है। बाल्कों तथा बालिकाओंके लिए उनकी सीमा १४ साल है। कुछ लोगोंके साथ जो वरताव किया जाता है वह भयानक होता है। आमिटेजका मामला इसका उदाहरण है, उसने अपने भारतीय मजदूरके कान ही काट दिया था और अदालतमें खुल्लमखुल्ला मंजूर किया था कि हाँ, मैंने ऐसा किया है।

इस सम्बन्ध में हम क्या करवाना चाहते हैं, उसका उल्लेख वक्तव्य में किया गया है।

हालमें नेटाल सरकारने भारतीय बच्चोंकी शिक्षापर एक हास्यास्पद रोक लगा दी है। अब ऐसा कोई बच्चा, जिसने १३ वर्ष पूरे कर लिये हैं, सरकारी स्कूल में नहीं सकता। यह एक जानबूझकर अख्तियार किया गया तरीका है, जिससे शिक्षामें, जो देश तथा समाज दोनोंकी ही भलाईके लिए नितान्त आवश्यक है, रुकावट पड़ रही है। अतएव यह हमारा फर्ज है कि शिक्षाके इस तरह सीमित किये जानेका विरोध करें।

प्रवासी प्रतिबन्धक कानून भी एक अन्याय है। ऐसा कोई भी पिता, माता, भाई, या बहन, जो जन्मसे भारतीय हो, यहाँ बसे हुए किसी आदमीके साथ नहीं रह सकता, और एक निश्चित वयके ऊपर वाले बच्चे भी अपने उन माता-पिताके साथ आकर नहीं रह सकते जो उनके पालन कर्ता हैं। उन बच्चोंकी मौजूदगीसे तो कोई हानि हो ही नहीं सकती।

और भी अनेक अन्याय हैं। परन्तु हमने कुछ बहुत ही हृदयविदारक मामलोंको ही गिनाया है। मैं तथा मेरे साथी प्रतिनिधि फिर एकवार लॉर्ड महोदयको धन्यवाद देते हैं कि आपने धीरजके साथ हमसे मुलाकात की और हमारी बात सुनी।