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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


निःसन्देह आप उन कठिन परिस्थितियों से परिचित हैं, जिनका हम नेटालमें सामना कर रहे हैं। हम नम्रता-पूर्वक आशा करते हैं कि आप हमें अपने लोगोंके लिए कोई सन्देश देनेकी कृपा करेंगे।

इस प्रस्तावनाके बाद श्री अब्दुल कादिरने नेटालके प्रतिनिधियोंकी तरफ से लॉर्ड महोदयको मेहरबानी करके मुलाकात देनेके लिए धन्यवाद दिया।

नेटालमें हुई एक आमसभा से प्राप्त एक तार भी लॉर्ड महोदयको पढ़कर सुनाया गया। उस तारमें शिष्टमण्डलका समर्थन किया गया था।

मुलाकातके अन्त में श्री अब्दुल कादिरने बताया कि मैं नेटालके लोगोंके बीच २५ वर्षसे भी अधिक समय से रह रहा हूँ, और मुझे अन्देशा है कि संघ-सरकारसे नेटालके ब्रिटिश भारतीयोंको कोई न्याय नहीं मिल सकेगा।

एम॰ सी॰ आंगलिया

[अंग्रेजीसे]
इंडिया ऑफ़िस रेकईस: १७९/०९

परिशिष्ट २०

ऍम्टहिल, क्रू और स्मट्सके बीच पत्र-व्यवहार

(१) जनरल स्मट्सके नाम लॉर्ड ऍस्टहिलका पत्र

अगस्त १०, १९०९

प्रिय जनरल स्मट्स,

मैं कल दोपहर बाद श्री गांधीसे मिलने गया था। मैंने उनसे आपके सुझावोंके अनुसार बात की; लेकिन उन्हें यह नहीं बताया कि वे सुझाव आपके हैं। मैंने पाया कि अपने विचारोंकी दृष्टि से वे उतने ही स्पष्ट कायल करनेवाले और दृढ़ हैं जितने आप अपनी दृष्टिसे हैं। हमारी बातचीत दो घंटेतक चली उसमें हमने व्यावहारिक, राजनीतिक, कानूनी और नैतिक—प्रत्येक दृष्टिकोणसे प्रश्नपर विचार किया। आखिर मैं समझौतेके बारे में निराश होकर आ गया।

श्री गांधी ऐसे सिद्धान्तके लिए लड़ रहे हैं, जिसे वे सारभूत मानते हैं और जहाँतक मैं समझ सकता हूँ, जैसे हम अपने जिन्दगी-भरके राजनीतिक या धार्मिक सिद्धान्तोंको नहीं छोड़ सकते वैसे ही वे भी उस कार्यका त्याग नहीं कर सकते, जिसे वे सारभूत और न्यायोचित मानते हैं। दरअसल तो मुझे ऐसा लगता है कि उनके ऐसा करनेकी सम्भावना और भी कम है; क्योंकि हममें बहुत कम लोग ऐसे हैं जो केवल किसी अप्राप्य सैद्धान्तिक और निरर्थक अधिकार प्राप्त करनेके लिए सर्वस्वका बलिदान कर दें। इस मनुष्यकी प्रशंसा किये बिना रहना असम्भव है; क्योंकि स्पष्ट है, वह अपने अन्तरात्माके अलावा अपीलकी कोई दूसरी अदालत मानता ही नहीं।

अब अगर मैं आपको एक सुझाव दूँ तो आशा है, आप उसे मेरी अनधिकार चेष्टा न मानेंगे। आप जो-कुछ करनेके लिए तैयार हैं, उसे अनाक्रामक प्रतिरोधियोंसे कोई सौदेबाजी किये बिना क्यों न कर दें? अगर आप उन्हें साररूपमें ही सही, वह चीज दे दें जिसकी वे माँग कर रहे हैं—अर्थात् १९०७के कानून २ का रद किया जाना और हर साल ज्यादासे-ज्यादा छः भारतीयोंका स्थायी निवासियोंके रूपमें कानूनन प्रवेश—तो क्या आप उन्हें निस्र न कर देंगे? अगर ऐसा करना उचित हो तो किसी भी हालतमें—अर्थात्, चाहे अनाक्रामक प्रतिरोधी सन्तुष्ट हों या न हों—आप कर क्यों न डालें? इस तरहसे आप बाहरके लोगोंकी आलोचनाको बन्द कर देंगे और आपके इस कार्यसे साम्राज्य सरकारको भारतमें की जानेवाली शिकायतोंका कारगर जवाब भी मिल जायेगा।

क्या मैं एक कदम आगे बढ़कर आपको ऐसा उपाय सुझा सकता हूँ जिससे "रंग-सम्बन्धी प्रतिबन्ध" रखे बिना कानूनमें छः भारतीयोंके प्रवेशकी सीमित व्यवस्था हो सके?