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परिशिष्ट

गुजराती भाषाकी रक्षा और उसका विकास है। यदि कोई पूछे कि ऐसा करनेका कारण क्या है तो उसका उत्तर यह है कि भारतकी भाषाएँ कुछ विपत्तिमें पड़ गई हैं—सो इसलिए नहीं कि उनपर दुश्मनने आक्रमण किया है; उसका कारण यह है कि आजकल अपनी भाषाओं और दूसरी देशी वस्तुओंके प्रति उपेक्षाका भाव देखा जाता है। सब लोग अंग्रेजी पढ़ने लगे हैं। यह तो ठीक है। जिस भाषामें शासनका कार्य चलता है, जिस भाषामें व्यापार चलता है उसे सीखनेका लोगों में उत्साह होता है और होना चाहिए। किन्तु इसीलिए कोई अपनी भाषा छोड़ दे, यह ठीक नहीं है। हम लोगों में से कई फ्रेंच, जर्मन आदि सीखते हैं। तब हम अपनी कुदरती भाषा कैसे छोड़ सकते हैं? उस भाषाकी हँसी करना किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता। फिर भी कोई इस बातसे इनकार नहीं कर सकता कि भारत में [अपनी भाषाओंकी] ऐसी उपेक्षा हो रही है। मुझे याद है कि जब मैं बालक था उस समय कुछ युवक अपने घरोंमें भी गुजराती भाषा नहीं बोलते थे। मैं उनमें से कुछके नाम दे सकता हूँ। कुछ तो अंग्रेजोंकी नकल इस हद तक करते थे कि आयाएँ भी उत्तर भारतकी रखते थे जिससे बच्चे जरूरत पड़नेपर [कोई भारतीय भाषा बोलें भी तो] अंग्रेजोंकी तरह केवल हिन्दुस्तानी ही बोलें। यह सब अधूरी शिक्षाके कारण होता था। अब ऐसे उदाहरण कम देखनेमें आते हैं। मैं कई वर्षोसे यहीं (इंग्लैंडमें) रह रहा हूँ। फिर भी अपनी भाषा बोलनेका अभ्यास मैंने छोड़ा नहीं है। मुझे कोई गुजरातीमें पत्र लिखे तो उसका उत्तर मैं गुजराती में ही देता हूँ।...'रिसेप्शन कमिटी' शब्दका प्रयोग करते हुए मेरे मनमें यह विचार आया कि उसके लिए हमारे पास गुजराती शब्द होना चाहिए। किन्तु परिषद्के विधानका जो मसविदा हमारे पास आया है उसमें उन्होंने भी अंग्रेजी शब्दका प्रयोग किया है, इसलिए मैं भी उसीका उपयोग कर रहा हूँ। इससे प्रकट होता है कि अपनी भाषापर हमारा अधिकार नहीं रह गया है।"

पहला प्रस्ताव

श्री मोहनदास करमचन्द गांधीने निम्नलिखित प्रस्ताव पेश किया?[१]

प्रस्तावका समर्थन करते हुए श्री नसरवानजीने कहा:

"प्रस्तावका मैं सहर्ष समर्थन करता हूँ। पहला गुजराती पत्र निकालनेवाला पारसी था। 'ज्ञानप्रकाश' पत्र एक पारसीने ही निकाला था। 'स्त्री-बोध' का आरम्भ करनेवाले श्री काबराजी पारसी थे। एक पारसी लेखकने ही हास्यरसके लेख लिखना शुरू किया था। 'कौतुक-संग्रह' भी एक पारसीने ही निकाला था। अनेक अंग्रेजी पुस्तकोंका अनुवाद भी पारसियोंने किया है। गुजराती व्याकरणके रचयिता श्री मंचरशा पारसी थे। पहला शब्दकोश एक पारसीने तैयार किया। गुजराती नाटक भी पारसियोंने शुरू किये। इस तरह हमारी भाषाको पारसियोंकी ओरसे बहुत अच्छा उत्तेजन मिला है, किन्तु खेदकी बात है कि आजकल वे उसके लिए उतना प्रयत्न नहीं करते।"

दूसरा प्रस्ताव

श्री ईदुलजी खोरीने दूसरा प्रस्ताव पेश किया:

"भारतकी विविध भाषाओंकी प्रगतिके लिए जो प्रयत्न किये जा रहे हैं, यह सभा उनका अभिनन्दन करती है और विश्वास करती है कि समस्त भारतका कल्याण ऐसे प्रयत्नोंपर ही आधारित है।"

प्रस्तावका विवेचन करते हुए श्री खोरीने, जो अपनी युवावस्थासे ही गुजराती लेखकके रूपमें प्रख्यात हैं, कहा: "सच पूछो तो पारसियोंकी भाषा गुजराती है।...गाँवोंमें रहनेवाले पारसी शहरके पारसियोंकी अपेक्षा ज्यादा अच्छी गुजराती बोलते हैं। पारसियोंका लेखन रसपूर्ण है, किन्तु वे हिन्दुओंकी तरह शुद्ध भाषा नहीं लिखते।...इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हम गुजराती भाषाका विकास कर सकते हैं। माणेकबाई पारसी हैं, फिर भी अपनी जो रचना उन्होंने पढ़कर सुनाई वह बहुत प्रांजल थी...।"

  1. प्रस्तावके पाठ और गांधीजीके भाषणके लिए, जो इसके बाद आते हैं, देखिए पृष्ठ ४५६-५९।