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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

(४) नेटालके जिन भारतीयोंका [इस उपनिवेशमें बसने का] हक हम मानते हैं, वे नेटालमें दाखिल हों ।

(५) दाखिल होनेवाले भारतीय अँगूठे के निशान कदापि न दें ।

(६) माल बेचा जाये तो उसकी परवाह न करें ।

मानापमानका सवाल

देखता हूँ, जो लोग हमारी लड़ाईमें शामिल होने के विचारसे ट्रान्सवालमें प्रवेश करते हैं, उनमें से किसी-किसीके मनमें अपने मानापमानका विचार रह जाता है । यह अवसर मानापमान के विचारका नहीं है । सभी भारतीयोंको चाहिए कि वे मानको ताकपर रखकर भारत के सेवकको हैसियतले आयें । आदर-सत्कारका समय नहीं है। जो सेवा कर रहे हैं, उनके पास अवकाश नहीं है । श्री सोराबजी आये । उन्हें जितना मान दिया जाता, कम था । किन्तु किसोको अवकाश नहीं था । हमारे बीच अब जेल जाना एक साधारण बात हो गई है । सभी सेवक हैं, फिर किसको मान दें ? अभी यह ऐसा ही कठिन प्रसंग है और यदि ऐसा ही बना रहा, तो भी कोई हर्ज नहीं है ।

हम सच्चे अथवा अच्छे आदमीको मान देते हैं । यदि देखा जाये, तो वास्तवमें इसमें समाजकी थोड़ी-बहुत होनता हो है, क्योंकि इसका मतलब है, हममें अच्छे और सच्चे आदमी इतने कम हैं कि हम उनका धूम-धाम से स्वागत करते हैं । जिन वस्तुओंकी कमी होती है, उनका भाव बढ़ता है । यदि ऐसा अवसर आये कि समाज में सभी अच्छे हो जायें, तो फिर भले ही किसी व्यक्तिको मान न दिया जाये, वह समाज संसारमें तो मान पायेगा ही । अंग्रेज किसी सामर्थ्यवान आदमीपर लट्टू हो जाते हैं। इसके दो अर्थ हैं -- एक तो यह कि उनमें वास्तविक सामर्थ्यको कमी हो गई है, दूसरा यह कि वे लोग शरीर-बलको बहुत महत्त्व देते हैं ।

इसलिए हमारा फर्ज तो यह है कि सभी भारतीय अच्छे, सत्यवादी, धैर्यवान, और स्वदेशाभिमानी देश-सेवक बनें । यदि ऐसा हो गया, तो मानापमानका प्रश्न नहीं बचेगा । मेरी किसीने कीमत नहीं की, ऐसा विचार भी मनमें नहीं आयेगा । कीमत तो इसीमें है कि जिस समय जो कुछ मिले और जगतके रचयिताको जो कुछ देना रुचे उसीमें सन्तोष मानकर सत्कर्मों में दिन गुजारे जायें ।

मंगलवार, [ सितम्बर १५, १९०८]

गलतफहमी

श्री मुहम्मद खाँ श्री गांधीके कार्यालयसे जानेके कारण कुछ लोग ऐसा समझ रहे हैं कि वे निःशुल्क सार्वजनिक कामसे पीछे हट गये । ऐसा समझना ठीक नहीं है । श्री मुहम्मद खाँने अवैतनिक रूपसे भी रहने की बात की थी, किन्तु वैसा करनेकी जरूरत नहीं थी । उन्हें साधारण रूपसे कमाई करनेकी अच्छी सुविधा मिल रही थी, इसलिए श्री गांधीकी सलाह से वे गये हैं। श्री डोरासामीकी अवैतनिक मदद स्वीकार कर ली गई है, क्योंकि वे तो खाली बैठे थे । भारतीय ईमानदारीसे कमायें और धन-संचय करें, इसकी भी जरूरत है । सभी कमाना छोड़कर स्वयं सेवक नहीं बन सकते । श्री डोरासामीको जीविकाकी अन्य सुविधाएँ हैं, इसीलिए वे संघकी मदद कर सकते हैं ।

१. देखिए " जोहानिसबर्गकी चिट्ठी" , पृष्ठ १६ ।