इसलिए मैं यह आशा करनेकी धृष्टता करता हूँ कि आप कृपया माँगी गई राहत देकर इस प्रकारके किसी भी सन्देहको दूर कर देंगे ।
आपका आज्ञाकारी सेवक,
काछलिया
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ
२२. पत्र : 'स्टार' को
[ जोहानिसबर्ग
सितम्बर १७, १९०८
कदाचित् आप मुझे यह कहने की अनुमति देंगे कि आप जो भारतीय दृष्टिकोणको लगातार गलत रूपमें प्रस्तुत करते रहे हैं वह, अब ऐसा प्रतीत होता है, अनजान में होनेकी अपेक्षा जानबूझकर किया गया है । आप कहते हैं कि मैं "किसी भी शैक्षणिक कसौटीको, चाहे वह कितनी ही कड़ी क्यों न हो, स्वीकार करनेके लिए तैयार हूँ, बशर्ते कि वह यूरोपीयों और एशियाइयोंपर निष्पक्ष" भावसे लागू की जाये । मैं अबतक जो-कुछ कहता आया हूँ, यह उसके बिल्कुल विपरीत है । मेरा कहना यह है कि कानून में एक सामान्य शैक्षणिक कसौटी हो; किन्तु अमल में वह निष्पक्ष भावसे नहीं, बल्कि भेदभावके साथ लागू की जाये । कानूनमें मन्त्रीको अपनी विवेकबुद्धिका प्रयोग, जैसे चाहे वैसे, करनेका पूरा अधिकार है । यदि उसे विवेकबुद्धिके
१. यह पत्र २६ - ९ - १९०८ के इंडियन ओपिनियन में "श्री गांधीका उत्तर" शीर्षकसे प्रकाशित किया गया था । स्टारने इसपर सम्पादकीय टिप्पणीमें लिखा था : “... हम आज सबेरेके टाइम्सकी ओर ध्यान आकर्षित करते हैं ।... उसने निष्कर्ष निकाला है कि प्रमाण उपनिवेश सचिव के पक्ष में है और वर्तमान झगड़े की जह यह है कि श्री गांधी... ऐसी रियायतें प्राप्त करना चाहते हैं जो गत जनवरी में समझौता करते समय श्री स्मट्सके खयालमें नहीं थी । [ श्री गांधी ] किसी भी शैक्षणिक कसौटीको, चाहे वह कितनी ही कड़ी क्यों न हो, स्वीकार करनेके लिए तैयार हैं, बशर्ते कि वह यूरोपीयों और एशियाइयोंपर निष्पक्ष भावसे लागू की जाये । किन्तु उनका आग्रह यह है कि जिन लोगोंको वर्तमान कानून या नये प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम ( इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन ऐक्ट ) के अन्तर्गत प्रविष्ट होने दिया जाये उनके साथ पूर्ण “ समानता " का बरताव किया जाये । यदि हम शैक्षणिक कसौटीको बहुत कठोर बना दें तो हमें कई यूरोपीयोंके न आ सकनेका अन्देशा है ... यदि वर्तमान स्तरको कायम रखें और १९०७ के एशियाई कानूनको रद कर दें तो हम उससे असंख्य एशियाइयों के लिए उपनिवेशंके द्वार खोल देते हैं । . . . समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है, मुख्यत: [ इसलिए कि ] श्री गांधीको भेदजनक कानूनकी समस्त कल्पना ही अस्वीकार है । "