पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५१
पत्र : 'स्टार' को

प्रयोगका अधिकार न हो, तो वह उसे दे दिया जाये ।' भारतीय इसके लिए बिलकुल तैयार हैं । मैंने यह बात जनता और आपके प्रतिनिधिके सम्मुख एक बार नहीं, अनेक बार कही है । इसमें कोई चाल होनेका प्रश्न भी नहीं है, जैसा आपने पहले एक टिप्पणीमें कहा है । जबतक ऐसे लोग, जो एक ही स्तरके नहीं हैं, एक ही झंडेके नीचे रहते हैं, तबतक प्रशासनिक असमानता सदा रहेगी । मेरी माँग तो केवल यह है कि कानूनमें, विशेषतः शिक्षित भारतीयोंके सम्बन्ध में, व्यक्तियोंका लिहाज कतई न किया जाना चाहिए । आप 'टाइम्स'का प्रमाण देते हैं; किन्तु यदि आप मुझे यह कहनेके लिए क्षमा करें तो, 'टाइम्स' सिर्फ उसी बात का ढिंढोरा पीटता है जिसे जनरल स्मट्स या उनकी ओरसे कोई अन्य व्यक्ति उसको भेज देता है । इस समय 'टाइम्स' के पास इस मामलेके सम्बन्ध में पूरे तथ्य नहीं हैं ।

मैं इस बातका जोरोंसे खण्डन करता हूँ कि मेरे देशवासी अब एक नया प्रश्न उठा रहे हैं । संक्षेपमें तथ्य निम्न हैं: युद्ध से पूर्व भारतीयोंका प्रवास बेरोकटोक होता था । सन्धि होनेके बाद प्रवास सामान्यतः शान्ति-रक्षा अध्यादेश ( पीस प्रिजर्वेशन ऐक्ट ) के अन्तर्गत नियन्त्रित था; इसके अन्तर्गत नये शिक्षित एशियाई देशमें प्रवेश कर सकते थे । सन् १९०७ के एशियाई कानून में केवल उन लोगोंके पंजीयन ( रजिस्ट्रेशन ) की व्यवस्था थी, जिन्हें देशमें रहनेका अधिकार था, किन्तु जनरल स्मट्सकी स्वीकारोक्तिके अनुसार उससे प्रवास नियन्त्रित नहीं होता था । शान्ति-रक्षा अध्यादेशका स्थान प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम ( इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन ऐक्ट) ने लिया और उसमें एक सामान्य शैक्षणिक कसौटी रखी गई । तब एशियाई [पंजीयन ] अधिनियम (एशियाटिक रजिस्ट्रेशन ऐक्ट) बनाया गया और उसके खण्ड २ के उपखण्ड ४ के अन्तर्गत भारतीयोंके उचित अधिकार धोखे से छीन लिये गये, यद्यपि उसमें इसका उल्लेख नहीं था; किन्तु चूँकि भारतीयोंने एशियाई कानूनको कभी स्वीकार नहीं किया है और सदा अकथनीय कष्ट सहते हुए लगातार दृढ़तापूर्वक उसको रद करनेकी माँग की है, इसलिए उनपर एक नया मुद्दा दाखिल करने का आरोप कैसे लगाया जा सकता है ?

कानूनको रद करने का समय आनेपर अपना वचन पूरी तरह भंग करके चार शर्तोंपर कानूनको रद करनेका प्रस्ताव करनेवाले जनरल स्मट्स ही थे इनमें से तीन शर्तोंको उन्होंने अनाक्रामक प्रतिरोधके दबावमें आकर और अपने कानूनके प्रशासनको ठप होते देखकर वापस ले लिया । चौथो शर्तको वे वापस नहीं लेते; और जबतक यह बात स्वीकार नहीं की जाती तबतक अवश्य ही ब्रिटिश भारतीयों और अन्य एशियाइयोंकी दृष्टिमें वे बेईमानी के आरोपके अपराधी रहेंगे ।

मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि आप और प्रगतिवादी नेता,जो कहते हैं कि उन्हें साम्राज्य हित हृदयसे प्रिय है,और जो एक प्रगतिशील दलका नेतृत्व करनेका दावा करते

१. बाद में इसके उत्तर में स्टारने लिखा था : "हम इस आरोपका जोरदार खण्डन करते हैं कि हमने श्री गांधी या उनके समाजको जानबूझकर गलत रूपमें प्रस्तुत किया है । ...ऊपर की बातोंके जवाब में हम यह कहेंगे कि कोई भी विनियम या मन्त्री द्वारा जारी किया गया आदेश संसद के कानूनकी स्पष्ट धाराओंको दरकिनार नहीं कर सकता । कानून अमलमें लानेके लिए बनाये जाते हैं । यदि सरकार ...इस मामले में ऐसी धाराओंपर अमल करने में असमर्थ रहती है ... तो वह एक ऐसी बेईमानी करती है जो राजनयिकों के उपयुक्त नहीं है ।" गांधीजीने इसका जो प्रत्युत्तर भेजा उसके लिए देखिए " पत्र: 'स्टार' को", पृष्ठ ५४-५५ ।

२. देखिए खण्ड ८, पृष्ठ २९७-९९ और पृष्ठ ३०८-१० ।

३. शिक्षित भारतीयों के प्रवेशके सम्बन्ध में ।