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२५. पत्र : 'स्टार' को

जोहानिसबर्ग,

सितम्बर १८, १९०८

सेवा में
सम्पादक
स्टार
महोदय,

मेरे इस कथनका कि शायद आपने मुझे जानबूझकर गलत रूपमें पेश किया है, आपने जोरसे खण्डन किया है; इससे मुझे प्रसन्नता हुई है । आपके इस खण्डन से मुझे आशा होती है कि शायद मैं आपको अब भी यह विश्वास दिला सकता हूँ कि भारतीयोंकी माँग न्यायपूर्ण है । अब मैं मानता हूँ कि उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीयोंके लिए द्वार खुले रखने में आपको कोई एतराज नहीं है । यदि ऐसा हो तो सवाल “हाँ या ना " का न होकर " कैसे " का है ।

आप मेरे हलको यह कहकर अस्वीकार करते हैं कि वह एक ऐसी "बेईमानी है जो राजनयिकों के उपयुक्त नहीं है", और फिर भी संसार भरके राजनयिकोंने उसीका सहारा लिया है । शान्ति-रक्षा अध्यादेश (पीस प्रिजर्वेशन ऐक्ट) की रूसे गवर्नरको अनुमतिपत्र (परमिट) जारी करनेके सम्बन्ध में पूर्ण विवेकाधिकार प्राप्त है । गोरे ब्रिटिश प्रजाजनोंको वह माँगने-भरसे मिल जाता है; दूसरे यूरोपीयोंको उतनी आसानीसे तो नहीं, किन्तु बहुत कम कठिनाईसे प्राप्त हो जाता है; लेकिन ब्रिटिश भारतीयोंको अत्यधिक कठिनाइयाँ झेलने के बाद मिलता है । गवर्नरने भारतीयोंके सम्बन्ध में उस अध्यादेशके अमलकी गरजसे यहाँतक किया कि एक पृथक् विभाग' ही खोल दिया । इसमें अन्याय तो था, किन्तु बेईमानी नहीं थी; क्योंकि ऐसा खुलेआम किया गया था । गवर्नरको विवेकाधिकार प्राप्त था और जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा, उन्होंने प्रमुख समाजके हितके लिए उसका इस प्रकार पक्षपातपूर्ण उपयोग किया । यदि विभाग में कभी भ्रष्टाचार न रहा होता और वास्तविक शरणार्थियोंके दावोंके सम्बन्ध सदा ही अत्यधिक कृपणतासे काम न लिया गया होता तो भारतीय पक्षपातपूर्ण प्रशासनकी ओर अँगुली न उठाते ।

आपने जनरल स्मट्सपर शासन-सेवाके रिक्त स्थानोंपर बोअरोंकी नियुक्ति करने के सम्बन्ध में विवेकाधिकारके अनुचित उपयोगका आरोप लगाया है; परन्तु यह राजनयिकोचित है अथवा नहीं, यह परिणामोंसे प्रकट होगा ।

नेटालमें शैक्षणिक कसौटीके सम्बन्ध में प्रवासी अधिकारी ( इमिग्रेशन ऑफिसर ) को विवेकाधिकार प्राप्त है । मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि यूरोपीयोंकी तो परीक्षा ली ही नहीं जाती । भारतीयोंकी परीक्षा ली जाती है, और वह भी कड़ी । कुछ वर्ष पूर्व नेटालमें

१. यह २६-९-१९०८ के इंडियन ओपिनियन में “समाधान सम्भव ", शीर्षकसे प्रकाशित किया गया था ।

२. एशियाई कार्यालय; यह १९०३ में बन्द कर दिया गया; देखिए खण्ड ४, पृष्ठ १७