पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१०१

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अनुपम मिश्र


नए-नए रूपों में सामने आ रहा है। बाढ़ नियंत्रण की तमाम कोशिशों के बावजूद पिछले दस सालों में देश के पहले से दुगने भाग में, 2 करोड़ हेक्टेयर के बदले 4 करोड़ हेक्टेयर में बाढ़ फैल रही है। कहां तो देश के 33 प्रतिशत हिस्से को वन से ढकना था, कहां अब मुश्किल से 10 प्रतिशत वन बचा है। उद्योगों और बड़े-बड़े शहरों की गंदगी ने देश की 14 बड़ी नदियों के पानी को प्रदूषित कर दिया है। गंदे पानी से फैलने वाली बीमारियों, महामारियों के मामले, जिनमें सैकड़ों लोग मरते हैं कभी दबा लिए जाते हैं तो कभी इस वर्ष की तरह सामने आ जाते हैं। इसी तरह कलकत्ता जैसे शहरों की गंदी हवा के कारण वहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा सांस, फेफड़ों की बीमारियों का शिकार हो रहा है। शहरों के बढ़ते क़दमों से खेती लायक़ अच्छी ज़मीन कम हो रही है, बिजली बनाने और कहीं-कहीं तो खेतों के लिए सिंचाई का इंतज़ाम करने के लिए बांधे गए बांधों ने अच्छी उपजाऊ ज़मीन को डुबोया है। इस तरह सिकुड़ रही खेती की ज़मीन ने जो दबाव पैदा किया उसकी चपेट में चारागाह या वन भी आए हैं। वन सिमटें हैं तो उन जंगली जानवरों का सफ़ाया होने लगा है जिनका यह घर था।

किसान नेता शरद जोशी ने खेतों के मामले में जिस इंडिया और भारत के बीच एक टकराव की-सी हालत देखी है : पर्यावरण के सिलसिले में प्राकृतिक साधनों के अन्याय भरे बंटवारे में यह और भी भयानक हो उठती है। इसमें इंडिया बनाम भारत तो मिलेगा, यानी शहर गांव को लूट रहा है, तो शहर-शहर को भी लूट रहा है, गांव-गांव को भी और सबसे अंत में यह बंटवारा लगभग हर जगह के आदमी और औरत के बीच भी होता है। उदाहरण के लिए दिल्ली में ही जमनापार के लोगों का पानी छीन कर दक्षिण दिल्ली की प्यास बुझाई जाती है, एक ही गांव में अब तक "बेकार" जा रहे जिस गोबर से ग़रीब का चूल्हा जलता था अब संपन्न की गोबर

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