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पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और


गैस बनने लगी है और घर के लिए पानी, चारा ईंधन जुटाने में हर जगह आदमी के बदले औरत को खपना पड़ता है।

बिगड़ते पर्यावरण की इसी लंबी सूची के साथ-ही-साथ सामाजिक अन्यायों की एक समानांतर सूची भी बनती है। इन समस्याओं का सीधा असर बहुत से लोगों पर पड़ रहा है।

पर क्या कोई इन समस्याओं से लड़ पाएगा? बिगड़ते पर्यावरण को संवार न पाएं तो फ़िलहाल कम-से-कम उसे और बिगड़ने से रोक पाएंगे क्या? इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने से पहले बिगड़ते पर्यावरण के मोटे-मोटे हिस्सों को टटोलना होगा।

विकास की सभी गतिविधियां 'उद्योग' बन गई हैं या बनती जा रही हैं। खेती आज अनाज पैदा करने का उद्योग है, बांध बिजली बनाने या सिंचाई करने का उद्योग है, नगरपालिकाएं शहरों को साफ़ पानी देने या उसका गंदा पानी ठिकाने लगाने का उद्योग है। सचमुच जो उद्योग हैं वे अपनी जगह हैं ही। इन सभी तरह के उद्योगों से चार तरह का प्रदूषण हो रहा है।

उद्योग छोटा हो या बड़ा, एक कमरे में चलने वाली मंदसौर की स्लेट-पैंसिल यूनिट हो या नागदा में बिड़ला परिवार की फैक्टरी या समाजवादी सरकार का कारखाना-इन सबमें भीतर का पर्यावरण कुछ कम-ज्यादा खराब रहता है। इसका शिकार वहां काम करने वाला मजदूर बनता है। वह संगठित है तो भी और असंगठित हुआ तो और भी ज़्यादा। फिर इन सबसे बाहर निकलने वाले कचरे से बाहर का प्रदूषण फैल रहा है। यह ज़हरीला धुआं, गंदा पानी वगैरह है। इसकी शिकार उस उद्योग के किनारे या कुछ दूर तक रहने वाली आबादी होती है। तीसरी तरह का प्रदूषण इन उद्योगों से पैदा हो रहे पक्के माल का है। जैसे

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