यह दौर ऐसी आधुनिकता का है जिसके मोहक मकड़जाल में मनुष्य लगातार फंसता चला जा रहा है। सोचा गया था कि यह आधुनिकता मनुष्य को अभाव और असुविधा से मुक्ति दिलाएगी और विकास की धारा को जनोन्मुखी बनाएगी। लेकिन बात उल्टी हो गई। एकांगी विकास के वर्चस्व ने सामाजिक ताने-बाने को तहस-नहस कर दिया है। प्रचंड उपभोक्तावाद और भौतिक वैभव के अशिष्ट प्रदर्शन से सामाजिक संरचना जिस तरह से प्रदूषित हुई है, ऐसे में मनुष्यता का दम घुट रहा है। एक अजीब किस्म के अनगढ़ अंधेरे में डूबा यह समाज रोशनी और रास्ते के लिए बेचैन है। इस बेचैन समय में अनुपम मिश्र की यह किताब एक 'राहत' की तरह सामने आई है।
यह वह राहत नहीं है जो हर वर्ष लूट-खसोट के साथ प्रखंड स्तर पर बाढ़ पीड़ितों को अनाज, पौलिथीन और दियासलाई मुहैया कराने का नाटक करती है, बल्कि यह अंधेरे में रोशनी देने और भूले-भटके को रास्ता दिखाने जैसी राहत है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यदि यह विकास का मानक है तो 'ससटेनेबल डेवलप्मेंट' का परचम लहराने वाले बुद्धिजीवियों के लिए विनम्र आग्रह है कि वे लोक और परंपरा के महत्व को पहचानें।
अनुपम मिश्र ने बहुत नहीं लिखा लेकिन लगातार लिखने वाले बहुत लेखकों के विपुल लेखन पर उनका थोड़ा लिखा भारी पड़ रहा है। यह बात सिर्फ मेरे मन में नहीं है पूरे हिंदी समाज का निर्दल और निर्दोष तबका इस तथ्य पर गौरव करता है और इसके लिए अनुपम भाई के प्रति कृतज्ञ भी है। अपने यहां बार-बार यह बात कही जाती रही है कि पढ़ने योग्य लिखा जाए इससे लाख गुना बेहतर है कि लिखने योग्य किया जाए। दोनों ही कसौटियों पर अनुपम तालाब की तरह खरे हैं। उन्होंने जो भी लिखा वह बहुपठनीय रहा और सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से वे पर्यावरण संबंधी कार्यों में तल्लीनता से लगे रहे। अपने कामकाज के दौरान उन्हें जब
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