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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१११

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अनुपम मिश्र


कटक केंद्रों से बाहर कर दिया गया। बहुत बाद में उन्हें म.प्र. सरकार ने अपना धान-सलाहकार ज़रूर बनाया पर पूरे देश में खेतीबाड़ी की शोध चलाने या कहें चलवाने वालों को यह स्वीकार नहीं हुआ।

बीजों के सौदागरों के ख़िलाफ़ अब फिर से एक आवाज़ उठाने की कोशिश चली है। लेकिन यह आवाज़ कृषि पंडितों की ओर से नहीं, कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से उठी है। प्रो. उपेंद्र बक्शी एक साल से इस सारे मामले को उजागर करने वाला एक खुला पत्र जगह-जगह भेज रहे हैं। मद्रास में 'द स्किल्स' नामक कलाकारों की एक संस्था ने बीजों के सौदागरों पर सुरुचिपूर्ण, लेकिन हिला देने वाले 15 पोस्टर बनाए हैं। इन्हें तैयार किया है चंद्रलेखा ने। चंद्रलेखा इन्हें लेकर विभिन्न गैर-सरकारी संस्थाओं, सभा-सम्मेलनों में दिखा रही हैं। अब तिलोनिया की एक सामाजिक संस्था के कुछ ग्रामीण कलाकार कठपुतलियों के जरिए राजस्थान में इसे उठाने जा रहे हैं।

जब तक अनाज के बारे में फैले-फैलाए गए कुछ भ्रम नहीं टूटते तब तक देसी बीजों की तरह इस देसी विचार को अनुकूल खेत नहीं मिल पाएगा। पहला भ्रम है आबादी का 'विस्फोट' और उससे निपटने के लिए हरी क्रांति का। दूसरा बड़ा भ्रम है कि अमीर देशों की भारी ऊर्जा जलाने वाली तकनीक अनाज के मामले में दुनिया को बेफ़िक्र कर सकती है। तीसरा भ्रम है कि खेती को एक बड़े धंधे में बदलने वाली दादा कंपनियां अपने नए, उन्नत, एक से गुण (या अवगुण) वाले बीजों से हमें तार लेंगी।

खेती का पवित्र रहस्य और उसकी सृजनशीलता वही है जहां वह हमेशा से रही है-किसान परिवारों में। ये ही किसान धरती के बीजों को सुरक्षित रखे आ रहे हैं, भविष्य में भी ये ही उन्हें सुरक्षित रख पाएंगे, बीजों के सौदागर नहीं।

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