का काम हाथ में लिया जाएगा। अंग्रेज़ों के काम करने का तरीक़ा कोई मामूली तरीक़ा नहीं था। नया काम हाथ में लेना हो तो पहले उसके लिए नए क़ानून बनेंगे। इसलिए पुराने क़ानून बदल डाले। 1904 में रैयत से कहा गया कि हर वर्ष 1000 तालाबों का काम कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। जिन तालाबों की मरम्मत के लिए रैयत पहल करेगी, कुल ख़र्च का एक तिहाई अपनी ओर से जुटाएगी। उन्हीं तालाबों की मरम्मत का काम सरकार अपने हाथ में लेगी। फिर कुल लागत उस तालाब से मिलने वाले 20 वर्ष के राजस्व से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। हां, अंग्रेजी राज इंग्लैंड का अपना घर फूंक कर मलनाड के तालाबों की मरम्मत भला क्यों करे?
इसलिए 1904 से 1913 तक मलनाड के कितने किसान अपना घर फूंक कर अपने तालाब दुरुस्त करते रहे, इसका कोई ठीक लेखा-जोखा नहीं मिल पाता। लेकिन लगता है यह तालाब-प्रसंग बेहद उलझता गया और इसे सुलझाने का एक ही तरीक़ा बचा था-स्वतंत्र सिंचाई विभाग को 'गुलाम' बनाने वाले बहुत से तालाब फिर से रेवेन्यू विभाग को सौंप दिए गए। इसी दौर में 'टैंक पंचायत रेगुलेशन कानून' बनाया गया। और
अब तालाबों की मरम्मत में रैयत का 'चंदा' अनिवार्य कर दिया गया। फिर भी काम तो कुछ भी नहीं हुआ इसलिए एक बार फिर इस मामले पर 'पुनर्विचार' किया गया और फिर सारे तालाबों की देखरेख रेवन्यू से ले कर उसी भरोसेमंद पीडब्ल्यूडी को सौंप दी गई। सन् 1913 से अंग्रेजी राज के अंतिम वर्षों का दौर उथल-पुथल का रहा। जब पूरा राज ही हाथ से सरक रहा था तब इन तलैयों की तरफ़ भला कैसे ध्यान जाता। फिर भी अपने भारी व्यस्त समय में कुछ पल निकाल कर एक बार इन्हें फिर राजस्व को दिया गया। तालाबों की इस शर्मनाक अदला-बदली का क़िस्सा आज़ादी के बाद भी जारी रहा। 1964 में एक बार फिर 'कुशल प्रबंध' के लिए ये तालाब राजस्व के हाथ से छीन
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