और उजाड़ जगह पर वे बंधुआ भगवान भरोसे छोड़ दिए जाते हैं। लेकिन सब तरफ़ से पिट चुका गांव और वहां की छोटी-सी संस्था इस सब अपमान के बाद भी अपना कर्तव्य नहीं भूलती। अपने वन के उजड़ने का दुख भूल कर वह इन छह परिवारों को गांव के अतिथि की तरह स्वीकार करती है। गांव से उनका एका कराती है। बरसात के दिनों में जब उनकी कच्ची झोपड़ियों के आसपास सांप वगैरह निकलने लगते हैं तो ऊपर सोने के लिए कुछ खाटों का इंतज़ाम करती है। बच्चों के बीच कपड़े और परिवारों के लिए एक बार फिर गल्ले का इंतज़ाम करती है। जिस गांव और संस्था को उनका दुश्मन बता दिया था-आज वही गांव और संस्था उनके दुखों में काम आ रहे हैं।
बंधुआ बस नहीं पाए हैं। कोई योजना ही नहीं बनी उनके लिए। पक्के घर बना कर देने की बात थी। उसमें भी कमजोर सामान लगाया गया। एक घर की छत गृहप्रवेश से पहले ही गिर गई। डर के मारे बाकी सारे लोग भी अपने घरों में नहीं गए। अब सामान वगैरह भीतर रख दिया है मगर डर बना रहता है। गांव का वन और मन उजाड़ कर सरकार ने बंधुआ बसाए थे यह कह कर कि यहां वे खेती करके शानदार नए जीवन की शुरुआत करेंगे। एक बरस बीत गया है। उस ज़मीन को खेत में बदलने की गुंजाइश होती तो बंधुआ खेती कर ही लेते। पर सभी परिवारों के पुरुष रोज़गार की तलाश में यहां-वहां भटक रहे हैं।
एक बात और। जिस गांव को बंधुआओं के ख़िलाफ़ खड़ा घोषित किया गया था वह गांव ऊंचे ज़मींदारों और बड़े किसानों का नहीं, बिल्कुल दीन-हीन वनवासियों का गांव है। शायद ज़्यादातर परिवारों की हालत बंधुआओं जैसी ही होगी।
यह सब कोई गड़े मुर्दे उखाड़ने के लिए नहीं लिखा जा रहा। जिन लोगों की ग़लती से एक गांव को जिंदा दफ़नाने दिया गया था, उसकी
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