के आसपास बसे उन गांवों की सुध लेना जो बाढ़ के दिनों में प्रशासन से पूरी तरह कट जाते हैं।
गाड़ी, सैंजी, निजमुला, अडुंग, बेरा, गौना, धारकुमार, पगना, दुरमी, जी, मनोरा, पाणा और ईरानी नामक इन तेरह गांवों में यदि इन दिनों जीवन 'सामान्य' दीखता है तो उसका एक ही कारण है- इनकी सहनशक्ति। निजमुला गांव में राशन की एक दुकान थी, जो मुख्य गांव के अलावा गौना, अडुंग और धारकुमार की आबादी के लिए सस्ता गल्ला बेचती थी। इसी तरह पगना, ईरानी, दुरमी, पाणा, मनोरा और झैली गांव के लिए बेरा में राशन मिलता था। पर इस साल दोनों दुकानें बंद हो गई हैं। दुकानदारों का कहना है कि उन्हें घाटा हो रहा था। ऊंचाई के इन गांवों तक गल्ला खच्चरों की पीठ पर लदकर आता था। शासन प्रति क्विटल दस रुपए की ढुलाई मंजूर करता है। पर बरसात के दिनों में खतरा बढ़ जाने के कारण खच्चर वाले प्रति क्विटल तीस रुपए ढुलाई वसूल करते हैं। इसलिए दुकानदारों ने ये दुकानें बंद कर दी हैं। अब इन गांव के लोगों को राशन लेने मुख्य सड़क पर बसे बिरही गांव तक आना पड़ता है। इन तेरह गांवों से बिरही गांव की दूरी पांच किलोमीटर से तीस किलोमीटर तक है। इसमें भी सात हजार फुट ऊंचा जंगल चढ़ना और उतरना पड़ता है। बरसात के दिनों में जंगल के इन पैदल रास्तों में भारी मात्रा में जोंक पैदा होती है। नंगे पैर वालों की तो बात ही अलग, जूते मोजे पहनकर जंगल पार करने वालों के पैर भी जोंक चिपक जाने से लहू-लुहान हो जाते हैं।
ऐसे रास्तों से होकर बिरही जाने वाला आदमी एक बार में 10-15 किलो से ज़्यादा वजन का राशन नहीं ले जा पाता। कुछ गांवों से बिरही तक आने-जाने में तीन दिन लग जाते हैं। तीन दिन की ऐसी कठोर यात्रा के बाद भी वह पंद्रह-बीस दिनों से ज़्यादा का राशन नहीं ले जा सकता। जिन परिवारों में कोई जवान नहीं है, उन परिवारों पर क्या बीतती होगी?
117