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साध्य, साधन और साधना


कैसे लड़खड़ाया और उसकी उस लड़खड़ाहट की कितनी बड़ी कीमत पूरे देश के पर्यावरण ने चुकाई? ये वन समाज के किस हिस्से से कितनी निर्ममता से छीने गए और जब वनों का वह गर्वीला एकल वन प्रबंध सारे विदेशी अनुदानों के सहजे संभाले नहीं संभला तो अचानक 'संयुक्त' प्रबंध की याद कैसे आई? पल भर के लिए, झूठा ही सही, एकल वन प्रबंधकों को सार्वजनिक रूप से कुछ पश्चाताप तो करना ही चाहिए था, क्षमा मांगनी चाहिए थी और तब विनती करते कि अरे भाई यह तो बड़ा भारी बोझा है, हमारे अकेले के बस का नहीं, पिछली गलती माफ़ करो, जरा हाथ तो बंटाओ।

साधन और साध्य का यह विचित्र दौर पूरी तरह उधारीकरण कर रहा है। जो हालत पर्यावरण के सीमित विषय में रही है, वही समाज के अन्य महत्वपूर्ण विस्तृत क्षेत्रों में भी मिलेगी। महिला विकास, बाल विकास, महिला सशक्तीकरण, बंधुआ मुक्ति, महाजन मुक्ति, बाल श्रमिक, लघु या अल्प बचत, प्रजनन स्वास्थ्य 'गर्ल चाइल्ड' सब तरह के कामों में शर्मनाक रूप दिखते हैं-पर हम तो आंख मूंद कर इनको जपते जा रहे हैं।

यूरोप अमेरिका की सामाजिक टकसाल से जो भी शब्द-सिक्का ढलता है, वहां वह चले या न चले, हमारे यहां वह दौड़ता है। यह भी संभव है कि इनमें से कुछ काम ऐसे महत्वपूर्ण हों जो करने ही चाहिए। तो भी इतना तो सोचना चाहिए कि हम सबका ध्यान इन कामों पर पहले क्यों नहीं जाता?

सामाजिक कामों के इस 'शेयर बाज़ार' में सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ सरकारों की भी गज़ब की भागीदारी है। केंद्र समेत सभी राज्यों की, सभी तरह की विचारधाराओं वाले सभी दलों की सरकारों में इस मामले में गज़ब की सर्वसम्मति है। विश्व बैंक हर महीने कोई 200 पन्नों

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