पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१४१

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अनुपम मिश्र


का एक बुलेटिन निकालता है। इसमें पिछले महीने में पारित सभी देशों के राज्यों की विभिन्न सरकारों को दिए जाने वाले ऋण का विस्तृत ब्योरा रहता है। इसे देख लें-पक्का भरोसा हो जाएगा कि डॉलर विचार की करंसी में बदल गया है।

ऐसा नहीं कि सभी बिक गए हैं। इस वृत्ति से लड़ने वाले भी हैं। पर कई बार खलनायक से लड़ते-लड़ते हमारे नायक भी कुछ वैसे ही बन जाते हैं। आपातकाल को अभी एक पीढ़ी तो भूली नहीं है। उससे लड़कर, जीतकर सत्ता में आए हमारे श्रेष्ठ नायकों ने तब कोकाकोला जैसे लगभग सर्वव्यापी पेय को खदेड़ा था। बदले में उसी जैसे रंग का, वैसी ही बोतल में उतने ही प्रमाण का यानी चुल्लू भर पानी बनाकर उसका नाम कोकाकोला के बदले '77, (सतत्तर नहीं) डबल सेवन रखा-आपातकाल की स्मृति को समाज के मन में स्थायी रूप देने! यानी हमारे पास अपने कठिन दौर को याद रखने का इससे सरल कोई उपाय नहीं था। चलो यह भी स्वीकार है। कष्ट के दिनों को मनोरंजन के, शीतल पेय के माध्यम से ही याद रखते। पर हम उसे भी टिका नहीं पाए। डबल सेवन डूब गया, वे नायक भी डूबे। फिर कोकाकोला वापस आ गया, पहले से भी ज़्यादा जोश से और संयोग यह कि हमारे डूबे नायक भी फिर से वापस आ गए। 'सहअस्तित्व' का सुंदर उदाहरण है यह प्रसंग। तो साधनों की बहस हमें वहां ले जाएगी जब हम साध्य, लक्ष्य, अपने सामने खड़े काम, कार्यक्रम ही नहीं खोज पाएंगे। एक बार साध्य समझ लें तो फिर बाहर के साधन भी कोई उस तरफ़ मोड़ सकता है। तब ज़्यादा गुंजाइश वैसे इसी बात की होगी कि साध्य अपना होगा तो साधन भी फिर अपने सूझने लगते हैं।

इसका एक छोटा-सा उदाहरण जयपुर जिले के एक गांव का है। वहां

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