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अनुपम मिश्र
था-वह भी एक ऐसे देश में जहां चेरापूंजी से जैसलमेर जैसी विचित्र परिस्थिति थी।
तालाबों का यह छोटा-सा किस्सा बताता है कि साध्य अपना हो तो साधन भी अपने जुटते जाते हैं। हां उसके लिए साधना चाहिए। आज संस्थाएं पूरी दुनिया से बात करने के लिए जितनी उतावली दिखती हैं, उसकी आधी उतावली भी वे समाज से बात करने में लगाएं ('पार्टीसिपेटरी रिरार्च एपराईज़ल', 'पी.आर.ए.' वाली बात नहीं) तो यह साधना अपना रंग दिखा सकती है।
एक कहावत है बुंदेलखंड में : चुटकी भर जीरे से ब्रह्मभोज। सिर्फ ज़ीरा है वह भी चुटकी भर। न सब्ज़ी है, न दाल, न आटा पर ब्रह्मभोज हो सकता है। साध्य ऊंचा हो, साधना हो तो सब साधन जुट सकते हैं। हां चुटकी भर जीरे से 'पार्टी' नहीं हो सकेगी।
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