पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१६९

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अनुपम मिश्र

मंच कोई भी हो उस पर खुले मन से अगर बात आगे नहीं बढ़ाएंगे तो हम लोगों को प्रत्येक 15 साल में एक झटका महसूस होगा। अगर ऐसा नहीं करते हैं तो जिस तरह से पहले हमने अर्थव्यवस्था चलाई है उससे मुंह मोड़ा है। पहले भी वही गलतियां हुई हैं। दुनिया के किसी एक पक्ष ने हमें पढ़ाया कि राष्ट्रीयकरण कर लो। हमने वह पाठ तोते की तरह पढ़ लिया। हमने आगे-पीछे का कुछ भी नहीं सोचा। हमने अपने तोतों से भी नहीं पूछा कि क्या तुम्हें भी कुछ पाठ पढ़ाया गया है? कुछ नहीं तो डाल पर बैठे अपने तोतों से ही पूछ लेते तो शायद मामला ठीक हो जाता। शायद हमें पता चल जाता कि राष्ट्रीयकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि इसके नीचे जो भी डाल देंगे सब ठीक हो जाएगा। वह प्रयोग भी बहुत सफल नहीं होने वाला था। अब दौर आया कि हर चीज़ का राष्ट्रीय हटाकर बाज़ारीकरण करते जाइए और इसे उदारीकरण का नाम दे दिया गया। मैं इस शब्द में कोई अलंकार या अनुप्रास देखने का मोह नहीं रखता। वस्तुतः यह हमारे दिमाग का, हमारी व्यवस्था का उदारीकरण नहीं उधारीकरण है। हमें अपने देश को चलाने के लिए बाहर की चीज़ें उधार लेनी पड़ती हैं। जान-बूझकर सोच-समझकर लेना, पूरी दुनिया का दरवाज़ा खुला रखना एक अलग बात है। लेकिन दुनिया में जिस चीज़ का झंडा ऊपर हो जाए, कभी साम्यवाद, कभी इस वाद का, कभी उस वाद का और हम उससे अछूते ही नहीं रहे बल्कि उसकी लपेट में पूरी तरह से आ जाएं, यह बहुत चिंतनीय दौर है। पूरे दौर में इस देश में जिसका मन लोहे जैसा है, इस्पात जैसा है क्यों इतनी जल्दी पिघल जाता है?

कटु और मीठे अनुभव की तरफ़ जाने से पहले समाज को बैठकर यह देखना चाहिए कि हम पहले से बेहतर हुए हैं क्या? अगर लोगों को उसकी क़ीमत चुकानी पड़े तो चुकाना चाहिए। लेकिन समाज एक दौर में इतना निष्ठुर हो जाता है कि कुछ लोगों के भले के लिए ज्यादा लोगों

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