हुई है। इन लेखों को पढ़कर यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि व्यक्तित्व की तरलता भाषा में कैसे बहती है। अनुपम जी की भाषा ने उनके व्यक्तित्व को सरल-तरल बनाया है या उनके व्यक्तित्व ने उनकी भाषा को भरा है, यह तय करना कठिन है। लेकिन यह तथ्य है कि अनुपम मिश्र ने कमरे में बैठकर शब्दकोश के सहारे अपना लेखन नहीं किया। राजस्थान के बंजर इलाक़ों में पानी और हरियाली के लिए जूझते ग्रामीणों की जुबान को अपनी भाषा में आने दिया है। मरुभूमि के इलाक़े की चर्चा करते हुए अनुपम मिश्र कहते हैं-'बादल यहां सबसे कम आते हैं, पर बादलों के नाम यहां सबसे ज़्यादा निकलें तो कोई अचरज नहीं। खड़ी बोली और बोली में ब और व के अंतर से पुल्लिंग, स्त्रीलिंग के अंतर से बादल का वादल और वादली, बादलो, बादली है, संस्कृत से बरसे जलहर, जीमूत, जलधर, जलवाह, जलधरण, जलद, घटा, क्षर (जल्दी नष्ट हो जाते हैं), सारंग, व्योम, व्योमचर, मेघ, मेघाडंबर, मेघमाला, मुदिर, महीमंडल जैसे नाम भी हैं। पर बोली में तो बादल के नामों की जैसे घटा छा जाती है: भरणनद, पायोद, धरमंडल, दादर, डंबर, दलवादल, घन, घणमंड, जलजाल, कालीकांढल, कालाहण, कारायण, कंद, हब्र, मैंमट, मेहाजल, मेघाण, महाधन, रामइयो और सेहर। बादल कम पड़ जाएं, इतने नाम हैं यहां बादलों के। बड़ी सावधानी से बनाई इस सूची में कोई भी ग्वाला चाहे जब दो-चार नाम और जोड़ देता है। भाषा की और उसके साथ-साथ इस समाज की वर्षा-विषयक अनुभव संपन्नता इन चालीस, चवालीस नामों में समाप्त नहीं हो जाती। वह इन बादलों का, उनके आकार, प्रकार, चाल-ढाल, स्वभाव के आधार पर भी वर्गीकरण करती है: सिखर हैं बड़े बादलों का नाम तो छीतरी हैं छोटे-छोटे लहरदार बादल। छितराए हुए बादलों के झुंड में कुछ अलग-थलग पड़ गया छोटा सा बादल भी उपेक्षा का पात्र नहीं है। उसका भी एक नाम है-चूंखो। दूर वर्षा के वे बादल जो ठंडी हवा के साथ उड़कर आए हैं, उन्हें कोलायण कहा गया
xiv