है। काले बादलों की घटा के आगे-आगे श्वेत पताका सी उठाए सफ़ेद बादल कोरण या कागोलड़ हैं। और इस श्वेत पताका के बिना ही चली आई काली घटा कांढल या कलायण है।'
जल, ज़मीन और जंगल के परिवेश का सिर्फ़ तथ्य नहीं बल्कि उस परिवेश में जन्में, रचे-बसे शब्दों को अनुपम अपने अध्ययन और लेखन के द्वारा हाशिये से मुख्य धारा में लाए हैं। फणीश्वर नाथ रेणु ने जिस तरह से 'मैला आंचल' में बिहार की लोकभाषा अंगिका का उपयोग किया है, मनोहर श्याम जोशी ने 'कसप' में कुमांउनी हिंदी का प्रयोग किया है उसी तरह से अनुपम मिश्र के लेखन में राजस्थान का लोक जीवन प्रतिबिंबित हुआ है। इस बात को दूसरे तरीके से कहा जा सकता है कि कई अर्थों में रूढ़ और यांत्रिक हो रही साहित्येत्तर हिंदी को अनुपम जी ने नए इलाके में पहुंचाकर इसे जन-जीवन से जोड़ा है और हिंदी को एक नई समृद्धि दी है। हिंदी के प्रति उनके इस योगदान का हिंदी समाज ने कृतज्ञतापूर्वक सत्कार किया है तभी तो उनकी पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' की एक लाख प्रतियां छपी हैं। हिंदी के इतिहास में किसी भी गैर-कथात्मक पुस्तक के लिए यह प्रसार आज तक संभव नहीं हुआ।
मुझे विश्वास है कि 'आज भी खरे हैं तालाब' और 'राजस्थान की रजत बूंदें' की तरह यह पुस्तक भी लोकप्रिय होगी। मैं नीता गुप्ता और पेंगुइन बुक्स का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी। मैं अपनी ज़िम्मेदारी में कितना सफल हुआ यह तो पाठक बताएंगे, लेकिन मैं इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि संपादन के दौरान भाषा, भाव और विचार की एक ऐसी विलक्षण दुनिया में मेरा प्रवेश हुआ जिससे मैं निकलना नहीं चाहता।
दुर्लभ लेखों को जुटाने, पांडुलिपि तैयार करने में गांधी शांति प्रतिष्ठान
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