चाहिए। मशीन धोने, मशीन बनाने, कपड़ा बनाने, कपड़ा धोने में पानी की ज़रूरत होती है। पंप लगाकर पानी की ज़रूरत पूरी करना उसके उत्पादन का ज़रूरी हिस्सा हो जाता है। उनकी ज़रूरत कम है या ज़्यादा, अलग विवाद है। कोक-पेप्सी और बोतलबंद पानी ऐसे उद्योग हैं जिनके उत्पादन का मुख्य हिस्सा पानी है। ज़मीन के छोटे हिस्से को ख़रीदकर वहां से हज़ारों-लाखों लीटर पानी वे अगर उलीच लेना चाहते हैं और अगर वर्तमान कानून इसकी इजाज़त देता है तो वह उचित नहीं है। यह चुनौती सरकार के सामने है। कोक पेप्सी की मनमानी के खिलाफ़ बहुत बड़े जन समुदाय के लिए दख्खल देना बहुत ज़रूरी हो गया है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक गज़ ज़मीन ख़रीदकर वहां से एक हज़ार लीटर पानी खींच लिया जाए। मैं कोक-पेप्सी को बाहर करने की मांग नहीं करता हूं। ऐसी मांगें भी अपने यहां उठती हैं। वे समाज और पर्यावरण का नुकसान कर रहे हैं, वह उनकी भरपाई करें, ऐसा कानून बनाया जाए या उन्हें लूट-खसोट के लिए खुला छोड़ दें?
नदी जोड़ने के संबंध को अगर हम उदारीकरण के अंतर्गत या बाहर करके भी देखें तो यह एक स्वतंत्र रूप से बनी योजना है। इसकी झलक हमें ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीयकरण के दौर में मिलती है। वह युग के. एल. राव और नेहरू जी का था। तब नदी जोड़ने का बड़ा सपना देखना बड़ा ही अच्छा माना जाता था। आज भी इसे ग़लत नहीं माना जाता है। राष्ट्रीयकरण से लेकर उदारीकरण तक अगर जोड़ने की बात है तो वह नदी जोड़ो योजना है। वह इन दोनों छोरों को जोड़ती है। और हमें बार-बार गलत साबित करती है कि केवल बाज़ार के लालच ने ही नहीं, बल्कि अच्छे राष्ट्रीयकरण का दौर भी नदी जोड़ने से हमें अलग नहीं कर पा रहा था। प्रकृति को जब ज़रूरत होती है वह अपनी नदियों को जोड़ लेती है। वह पांच दस साल नहीं बल्कि लाखों हज़ारों वर्षों की योजना बनाकर
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