पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१९१

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अनुपम मिश्र


एक तरह से बिखरा हुआ भी है और मुझे लगता है कि उसे समेटने के लिए गंभीर प्रयास की भी बहुत ज़रूरत है।

शायद अपने समाज को लिपि साहित्य रखने की आदत नहीं थी। परंपरा से एक दूसरे को देते चले आ रहे थे। लेकिन 'सामाजिक वानिकी' पर राजस्थान की कोई संस्था कोई किताब निकाले और उसमें ओरण अनुपस्थित है तो वह सामाजिक वानिकी नहीं है। फिर वह अंग्रेज़ी की ही किताब है। देवनागरी में दिखती है, हिंदी में दिखती है लेकिन उसके भीतर की जो आत्मा है वह शुद्ध अंग्रेज़ी है। वैसी हिंदी का कोई मतलब नहीं है, वैसी गुजराती नहीं है। पर आप पाएंगे कि ये अलग-अलग चेहरे हैं लेकिन उनकी जुबान एक हो गई और इसलिए अगर मूल साहित्य भी दिखेगा तो मूल पर भी अंग्रेज़ी विचार का असर है कि वह मौलिक नहीं बचता।

लेकिन जब हम पर्यावरण को देखते हैं तो हम अपने आस-पास की चीज़ को देखते हैं अपने आसपास के जीवन से कुछ सीखते हैं। और आस-पास के जीवन से सीखने का मतलब वहां का जो समाज है, उसको भी सीखना है। पर्यावरण कोई यही नहीं कि हमने फ़लां-फलां पेड़-पौधे देखे हैं। पर्यावरण अपने आप में एक समूचा शब्द है। उसको हम अलग से नहीं देख सकते।

है, समूचा है। अलग से नहीं देख सकते। लेकिन यह देखा तो अलग से ही गया है। समूचा होने के बाद भी उसे टुकड़े-टुकड़े करके देखा है। और हर तीन साल में एक टुकड़े पर ज़्यादा ध्यान गया है दूसरे पर से हट गया है। अगर अपने समाज को लोगों ने खंगाल कर भी देखा है, तो उससे 'शोध' वाली जिज्ञासा ज़्यादा है। इन टुकड़ों के खंडों के कुल जोड़ को, अखंड को फिर से समझने के लिए नए सिरे से बातचीत करनी

पड़ेगी। यह बातचीत पिछले 100-50 साल से बंद पड़ी है। समाज को,

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