पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१९३

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अनुपम मिश्र


साधारण सरकारी स्कूलों में से निकला। उनमें भी लोग अंग्रेजी सीखते ही हैं। ऐसा नहीं है कि केवल महंगे स्कूलों में सीखते हैं। अच्छे सरकारी स्कूलों में भी बहुत अच्छी अंग्रेजी सीखते हैं। पिताजी हिंदी के लेखक थे लेकिन अंग्रेज़ी बहुत अच्छी थी उनकी और भाषा की उनको बहुत गहरी समझ व पकड़ थी। मैंने प्रायः उनके संग्रह में अच्छे अंग्रेज़ी कवियों को और लेखकों को देखा। पर मैंने कोई पढ़ा नहीं उसमें से। जितना कोर्स था उससे संतुष्ट था। शेक्सपियर जितना ज़रूरी था, पढ़ लिया। इससे ज़्यादा फिर कभी देखेंगे पर फिर मौक़ा नहीं मिला।

या चिंतन की दृष्टि से अगर हम देखे तो साहित्य में पश्चिम का साहित्य भी पढ़ना एक तरह से शायद लाज़िमी है।

वह बहुत ज़रूरी है। लेकिन अपना साहित्य ही न पढ़ा हो, अपना चिंतन ही न किया हो, तब केवल पश्चिम का साहित्य पढ़ना किस काम का! पूरब भी तो पढ़ो। अब अगर हमने राजस्थान का पानी कुछ हद तक समझा है तो हम सोच सकते हैं कि इज़राइल में पानी कैसे संभाल कर रखते हैं। उस पर अंग्रेज़ी में किताब हो तो वो देख लें। पर अभी होता यह है कि मोटे तौर पर लोग अंग्रेज़ी का साहित्य पहले पढ़ लेते हैं। पर्यावरण हो या कुछ और हो। फिर उसमें से कुछ अपने इलाके की ग्रामीण आंचलिक गंध का जीरे, राई का छोंक वगैरह लगा लेते हैं। हम इससे ज़्यादा नहीं जाते। तो हमें तो यह लगा कि यह यात्रा दूसरी तरफ़ से होनी चाहिए। पहले वह कर लें; उसके बाद ज़रूरत पड़े तो यह करें। पूरब समझें फिर पश्चिम उत्तर दक्षिण-कुछ भी करें।

अलग-अलग समाजों में किसी काल खंड विशेष में ऐसे दौर आते हैं कि कोई एक भाषा प्रतिष्ठित हो जाती है। वो उस दौर में जानकारी का, प्रतिष्ठा का माध्यम भी बन जाती है। जैसे पिछले दौर में राज की भाषा फ़ारसी थी तो फ़ारसी को ही सारी दुनिया का आईना मान लिया

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