पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२०२

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पर्यावरण का पाठ


में खेती न अपनाकर पशु पालन पर आधारित समाज अपनाया तो उसने यह देखा होगा कि यहां पर अगर हम लंबे समय तक ठीक जीवन जीना चाहते हैं तो पशु पालना ज़्यादा ज़रूरी है। खेत हमको नहीं पुसा सकेंगे। पूरी तरह से हमको वे नहीं टिकाएंगे और फिर खेती के लिए दूसरे इलाके हैं देश के। वहां से अनाज का आदान-प्रदान कर सकते हैं। स्वावलंबन में एक यह भी है कि भाई कहीं और से कुछ अपने काम की चीज़ थोड़ी बहुत ले लें। मनाही थोड़ी है। गायों की अच्छी नस्ल यहां तैयार हो, दूध-घी यहां पर तैयार हो और कहीं से मूंगफली ले आएंगे। अब विकास का घमंड है कि नहीं सब जगह मूंगफली, सब जगह गेहूं, सब जगह धारा का तेल। जैसे पंजाब में धान बोना है। पहले अपने यहां धान की खेती तटीय इलाकों में और थोड़ी बहुत नदी के किनारे की ज़मीन में होती थी। उसको खूब पानी चाहिए। जब आप मैदानी क्षेत्रों में फैले हुए खेतों को धान के लायक बनाएंगे सारा पानी बह कर कहां जाएगा? 25-50 साल बाद आपको पंजाब में ऐसी खेती नुकसानदेह लगने लगेगी। पर तब बचाना कठिन हो जाएगा उसे। यह सातत्य वाले विकास का कोई रूप नहीं है। यह विकास भी नहीं है।

'पर्यावरण' की आंख से अगर हम अपनी पिछली गतिविधियों को देखेंगे तो ऐसा लगता है कि उसमें बहुत सारी हमारी चीज़ों को एक तरह से अस्वीकार किया है। जैसे नदियों के हिसाब से अगर देखें तो हमारे देश में चौदह बड़ी नदियों का जाल है, मुख्य नदियां फिर उनकी कई सारी सहायक नदियां । यह आंख बार-बार यह कह रही है कि भाई तुमने हमारे लिए कुछ भी नहीं किया। तुमने जो कुछ भी किया कारखाने बनाए तो कुछ समय विकास ज़रूर हुआ होगा। तुमने अच्छी खेती की, रासायनिक खाद डाली, दवाएं डाली लेकिन तुमने हमें तो नष्ट कर दिया। ये नदियां हमें बराबर अस्वीकृत करती चली आ रही हैं। प्रकृति की अस्वीकृति

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