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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२३४

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पर्यावरण का पाठ


का है। दुनिया को देखने का, पर्यावरण को समझने का। उसमें से कोई नई भूमिका बनती हो अभी यह मुझे नहीं दिखता। भूमिका बन ज़रूर सकती है। लेकिन उसके पीछे कुछ लोगों की अच्छी मेहनत और परिस्थितियों का भी हाथ हो शायद। जैसा गुजरात वाले अकाल में चर्चा की। जो वन विज्ञान पढ़ते हैं वह बिल्कुल एक भिन्न किस्म की प्रोडक्शन फ़ॉरेस्ट्री है। उस विज्ञान से वनों का कटना लोगों ने देख लिया। तो उसके बाद जब उन्हीं को लगा कि इसमें से कुछ ज़्यादा नुक़सान हो रहा है तो उन्होंने सोशल फ़ॉरेस्ट्री नाम से उसमें से एक छोटा-सा कार्यक्रम निकाला। लेकिन अच्छे से-अच्छे, ईमानदार वन वैज्ञानिक, अधिकारी के मन में भी यह बात कभी नहीं आ सकी कि अपने यहां सामाजिक वानिकी का सबसे अच्छा रूप तो ओरण परंपराएं हैं। चलो उसी को क्यों नहीं सुधार लें! ओरण शब्द आपको मरुभूमि के एक भी विश्वविद्यालय में देखने, सुनने, पढ़ने को नहीं मिलेगा। यह आज इतना अछूत शब्द कैसे है? उसको विश्वविद्यालय हाथ लगाते हुए क्यों डरता है? चाहे इस सरकार के समय में चाहे उसके। स्वदेशी के समय में हो विदेशी के समय में-सभी इन चीज़ों को हाथ लगाते हुए डरते हैं। इसलिए अभी औपचारिक शिक्षा में यह विषय उस रूप में नहीं उतरेगा, जिस रूप में हमें वह समाज में मिलता है।

जाति, धर्म, संप्रदाय में बटे समाज को एकसूत्र में पिरोने के लिए आप व्यक्ति के पर्यावरण के प्रति संवेदना को कितना कारगर मानते हैं और पर्यावरण के माध्यम से इस तरह की एकता को आप किस रूप में देखते हैं?

बहुत पक्का नहीं कह सकता कि जाति धर्म और संप्रदाय ने समाज को कितना बांटा है और कितना एक सूत्र में पिरो कर रखा है। अभी गुजरात का ताज़ा उदाहरण है जहां पर अकाल के बाद पाटीदार समाज

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