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भाषा और पर्यावरण


से-बड़ी संस्थाएं उस संगठन की कल्पना तो करके देखें। लेकिन वॉटरशैड, जलागम क्षेत्र विकास का काम कर रही संस्थाएं, सरकारें, उस निराकार संगठन को देख ही नहीं पाती। उस निराकार से टकराती हैं, गिर भी पड़ती हैं, पर उसे देख, पहचान नहीं पाती। उस संगठन के लिए तालाब एक वॉटर बॉडी नहीं था। वह उसकी रतन तलाई थी। झुमरी तलैया थी, जिसकी लहरों में वह अपने पुरखों की छवि देखता था। लेकिन आज की भाषा जलागम क्षेत्र विकास को मत्स्य पालन से होने वाली आमदनी में बदलती है।

इसी तरह अब नदियां यदि घर में बिजली का बल्ब न जला पाएं तो माना जाता है कि वे 'व्यर्थ में पानी समुद्र में बहा रही हैं।' बिजली जरूर बने, पर समुद्र में पानी बहाना भी नदी का एक बड़ा काम है। इसे हमारी नई भाषा भूल रही है। जब समुद्रतटीय क्षेत्रों में भूजल बड़े पैमाने पर खारा होने लगेगा-तब हमें नदी की इस भूमिका का महत्व पता चलेगा।

लेकिन आज तो हमारी भाषा ही खारी हो चली है। जिन सरल, सजल शब्दों की धाराओं से वह मीठी बनती थी, उन धाराओं को बिल्कुल नीरस, बनावटी, पर्यावरणीय, पारिस्थितिक जैसे शब्दों से बांधा जा रहा है। अपनी भाषा, अपने ही आंगन में विस्थापित हो रही है, वह अपने ही आंगन में पराई बन रही है।

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