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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२५९

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अनुपम मिश्र


तो मन की बात ठीक एकाध कभी सूझी नहीं। सूझी भी तो मन्ना की शर्त 'तेरी भर न हो' लागू करने के बाद कभी कुछ ऐसा बचता नहीं था-लिखने लायक़।

हम सब उन्हें मन्ना कहते थे। भाषा को बिगाड़ने का कुछ पाप जिन संबोधनों से लगता हो, वैसे संबोधन पिता के लिए तब प्रचलित नहीं हुए थे। लेकिन तब के नाम-बाबूजी, पिताजी, बाबा आदि से भी हम और वे बच गए थे। वे खूब बड़े भरे-पूरे परिवार में मंझले भाई थे। पिताजी के बड़े भाई उन्हें प्यार से सिर्फ 'मंझले' कहते और फिर दादा-दादी से लेकर सभी छोटे बहन-भाई, यानी हमारे चाचा, बुआ आदि भी उन्हें आदर से 'मंझले भैया' ही कहने लगे थे। मुझसे बड़े दो भाई सन् 1942 में जब पिताजी को पुकारने लायक उम्र में आ रहे थे कि वे जेल चले गए। जेल में लिखी उनकी कविता 'घर की याद' में इस भरे-पूरे परिवार का, उसके स्नेह का आंखें गीली करने लायक वर्णन है। 2-3 बरस बाद जब वे जेल से छूट कर लौटने वाले थे, तब ये दोनों बेटे अपने पिता को किस नाम से पुकारेंगे-इस बारे में नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) में घर में बुआओं, चाचाओं में कुछ बहस चली थी। दोनों को कुछ सलाह, निर्देश भी दिए गए थे। पर जब वे सामने आकर अचानक खड़े हुए होंगे तो दोनों बेटों ने रटाए सिखाए गए संबोधन कूद के पार कर लिए थे और सहज ही 'मंझले भैया' कह कर उनकी तरफ़ दौड़ पड़े थे। बेटों के लिए भी वे 'मंझले भैया' बने रहे।

फिर जन्म हुआ मुझसे बड़ी बहन नंदिता का। जीजी से 'मंझले भैया' कहते बना नहीं। उन्होंने उसे अपनी सुविधा के लिए 'मन्ने भैया' किया। फिर मन्ने भैया और थोड़ा घिस कर चमकते-चमकते 'मन्ने' और अंत में 'मन्ना' हो गया। जब मेरा जन्म 1948 में वर्धा में हुआ तब तक पिताजी जगत मन्ना बन चुके थे-सिर्फ़ हमारे ही नहीं, आस-पड़ोस और बाहर के छोटे से लेकिन आत्मीय जगत के।

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