सिंचाई का पानी उसी ढंग से उलीचा जाता रहा। नतीजा यह हुआ कि छह सात राज्यों में जल स्तर लगातार नीचे गिरता गया। वह इतना नीचे गिर गया कि फिर बिजली के भी हाथ नहीं लग सका।
हर तरह की अनीति के इस दौर में सरकार का ध्यान जलनीति बनाने की तरफ़ भी गया है। इस नई जलनीति का एक प्रारूप अकाल से पहले भी बन चुका है। जिन टेबिलों पर जलनीति बनी है, उन्हीं टेबिलों से देश की सारी नदियों को एक दूसरे से जोड़ देने की सबसे ख़र्चीली और शायद सबसे भयानक, अव्यावहारिक योजना की भी बात लगातार आ रही है। ऐसी चर्चाओं को, वार्ताओं को अकाल भी असामयिक, असामाजिक नहीं बना पाया है। ज़िम्मेदार लोग, मंत्रीगण ऐसी ही गप्पों में व्यस्त रहें तो क्या कहा जा सकता है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कभी भी अकाल अकेले नहीं आता। अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है। यहां विचार और काम दोनों में कोई अंतर नहीं है। यह आज की नई शब्दावली से अलग है। इसमें 'एक्शन', 'फ़ील्ड वर्क', 'ग्रासरूट' का काम कुछ ज़्यादा महत्व और वज़न लिए दिखता है और सोचना समझना एक घटिया दर्जे का काम माना जाता है। पर इसके विपरीत अच्छे कामों से अच्छे विचार निकलते हैं और अच्छे विचारों से अच्छे काम। इन दोनों में से कोई भी 'टर्मिनेटर सीड' नहीं होता।
इस अकाल के बीच भी अच्छे काम और अच्छे विचार का एक सुंदर छोटा सा उदाहरण राजस्थान के अलवर क्षेत्र का है जहां तरुण भारत संघ पिछले बीस बरस से काम कर रहा है। वहां पहले अच्छा विचार आया तालाबों का, हर नदी, नाले को छोटे-छोटे बांधों से बांधने का। इस तरह वहां और आसपास के कुछ और ज़िलों के कोई 600 गांवों ने बरसों तक वर्षा की एक-एक बूंद को सहेज लेने का काम चुपचाप किया। इन
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