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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२६५

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अनुपम मिश्र


काव्यपाठ रिकॉर्ड करेंगे। पर वैसा कभी हो नहीं पाया। एक तो ऐसे यंत्र चलाने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी, और फिर अपनी कविता खुद बटन दबा कर रिकॉर्ड करना, उसे खुद सुनाना, दूसरों को सुनना-उन्हें पसंद नहीं था। बाद में हमारे एक बड़े भाई बंबई से वास्तुशास्त्र पढ़कर जब दिल्ली आए तो जैलेसो पर मुकेश, किशोर कुमार और लता के गाने ज़रूर जग गए थे। आज भी हमारे घर में मन्ना की एक भी कविता का पाठ रिकॉर्ड नहीं है। कभी-कभी नितांत अपरिचित परिवार में परिचय होने के बाद सन्नाटा, गीत फ़रोश, घर की याद, सतपुड़ा के घने जंगल आदि कविताओं के पाठों की रिकॉर्डिंग हमें सुनने मिल जाती हैं। ये कविताएं उन्हीं शहरों में मन्ना ने पढ़ी होंगी। वहीं वे रिकॉर्ड कर ली गयीं। हमें ऐसे मौक़ों पर लालजी कक्कू के जैलेसो की याद ज़रूर आ जाती है, पर ईर्ष्या नहीं होती।

कविकर्म जैसे शब्दों से हम घर में कभी टकराए नहीं। मन्ना कब कहां बैठकर कविता लिख लेंगे-यह तय नहीं था। अक्सर अपने बिस्तरे पर, किसी भी कुर्सी पर एक तख्ती के सहारे उन्होंने साधारण से साधारण चिट्ठों पर, पीठ कोरे (एक तरफ़ छपे) काग़ज़ पर कविताएं लिखी थीं। उनके मित्र और कुछ रिश्तेदार उन्हें हर वर्ष नए साल पर सुंदर, महंगी डायरी भी भेंट करते थे। पर प्रायः उनके दो-चार पन्ने भर कर वे उन्हें कहीं रख बैठते थे। बाद में उनमें कविताओं के बदले दूध का, सब्ज़ी का हिसाब भी दर्ज हो जाता, कविता छूट जाती। भेंट मिले कविता संग्रह उन्हें खाली नई डायरी से शायद ज़्यादा खींचते थे। हमें थोड़ा अटपटा भी लगता था पर उनकी कई कविताएं दूसरों के कविता संग्रहों के पन्नों की खाली जगह पर मिलती थी। पीठ कोरे पन्नों से मन्ना का मोह इतना था कि कभी बाज़ार से काग़ज़ ख़रीद कर घर में आया हो-इसकी हमें याद नहीं। फिर यह हम सबने सीख लिया था। आज भी हमारे घर में कोरा कागज़ नहीं आता।

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