परिचित-अपरिचित, पाठक, श्रोता, रिश्तेदार-उनकी दुनिया बड़ी थी। इस दुनिया से वे छोटे से पोस्टकार्ड से जुड़े रहते। पत्र आते ही उसका उत्तर दे देते। कार्ड पूरा होते ही उसे डाक के डिब्बे में डल जाना चाहिए। हम आसपास नहीं होते तो वे खुद उसे डालने चल देते। फ़ोन घर में बहुत ही बाद में आया। शायद सन् 1968 में। इन्हीं पोस्टकार्डों पर वे संपादकों को कविताएं तक भेज देते।
बचपन से लेकर बड़े होने तक हमने मन्ना को किसी से भी अंग्रेज़ी में बात करते नहीं देखा, सुना। जबलपुर में शायद किसी अंग्रेज़ प्रिंसिपल वाले तब के प्रसिद्ध कॉलेज राबर्टसन से उन्होंने बी.ए. किया था। फिर आगे पढ़े नहीं। लेकिन अंग्रेज़ी खूब अच्छी थी। घर में अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेज़ी कविताओं की पुस्तकें भी उनके छोटे से संग्रह में मिल जाती थीं। पर अंग्रेज़ी का उपयोग हमें याद ही नहीं आता। बस एक बार संपूर्ण गांधी वाङ्मय के मुख्य संपादक किसी प्रसंग में घर आए। वे दक्षिण के थे और हिंदी बिल्कुल नहीं आती थी उन्हें। मन्ना उनसे काफ़ी देर तक अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे-हमारे लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। दस्तख़त, ख़त-किताबत सब-कुछ बिना किसी नारेबाज़ी के, आंदोलन के-उनका हिंदी में ही था और हम सब पर इसका खूब असर पड़ा। घर में, परिवार में प्रायः बुंदेलखंडी और बाहर हिंदी-हमें भी इसके अलावा कभी कुछ सूझा ही नहीं। हमने कभी कहीं भी हचक कर, उचक कर अंग्रेज़ी नहीं बोली, अंग्रेज़ी नहीं लिखी।
कोई भी पतन, गड्ढा इतना ग़हरा नहीं होता, जिसमें गिरे हुए को स्नेह की उंगली से उठाया न जा सके-एक कविता में कुछ ऐसा ही मन्ना ने लिखा था। उन्हें क्रोध करते, कड़वी बात कहते हमने सुना नहीं। हिंदी साहित्य में मन्ना की कविता छोटी है कि बड़ी है, टिकेगी या पिटेगी, इसमें उन्हें बहुत फंसते हमने देखा नहीं। हां अंतिम वर्षों में कुछ वक्तव्य
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