इन कुछ विशेष दिनों में गाय-बैलों को अलग से पकवान भी बनाकर खिलाए जाते थे।
इन्हीं दिनों मौसम बदलता, फ़सलें कटतीं और खेत ख़ाली हो जाते थे। तब कई ग्रामीण क्षेत्रों में ख़ाली खेत बैलगाड़ियों की दौड़ का मैदान बन जाते। ऐसे आयोजनों से पहले अलसी और गुड़ के लड्डु, गुड़-दलिया और कहीं-कहीं तो घी भी बैलों को पिलाया जाता था। खेतिहर समाज अपनी नींव बैल और गाय को मानता था और इस पर किसानी का पूरा वैभव खड़ा होता था।
लापोड़िया और उसके आसपास के कई गांवों में आज भी बैलों के शक्ति प्रदर्शन के खेल होते हैं। यहां कहीं भी चलते-फिरते आपको एक ऐसा बड़ा सजा हुआ पत्थर पड़ा हुआ दिखे तो समझ लें कि यह घांस बाबा है। यह शब्द पत्थर को घसीटने, घेंसने से बना है। एक विशेष दिन, प्रायः दीपावली के दूसरे दिन गांव के सब परिवार अपने-अपने बैलों की शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए इकट्ठे होते हैं। बैल के पीछे इस पत्थर को बांधा जाता है और वह बैल इसे लेकर कितना दूर जा सकता है-इसकी परीक्षा होती है। जो बैल सबसे अधिक दूरी तय करता है, उसको पुरस्कार मिलता है और फिर साल भर तक उस बैल की और उसके मालिक परिवार की गांव में विशेष हैसियत बनी रहती है।
कल्पना कीजिए उस ढांचे की, जिसमें खेतिहर समाज अपने पशुओं का इतना अधिक ध्यान रखता था। तब आज की तरह दूध का उद्योग नहीं था, डेयरी व्यवस्था नहीं थी, न दूध का संग्रह होता था और न दूध बिकता ही था। दूध की तुक पूत से थी। और दोनों को बेचना अच्छा नहीं माना जाता था। तब इन गांवों में दूध की नदियां कैसे बहती थीं, इस बात को आसानी से समझा जा सकता है।
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