बीच के जोड़ों को कुरेद कर कम-से-कम 25 सेंटीमीटर गहराई तक मसाला निकाल देना है। अब वेल्डमैश तार की बड़ी बनाई जाली, जिसके तार कम-से-कम एक दशमलव पांच मिलीमीटर हों, और छेद इस प्रकार हों कि 30 सेंटीमीटर चौड़ाई में कम-से-कम आठ तार हों यानी लगभग 35 सेंटीमीटर की दूरी पर हों तथा दूसरी ओर तारों की एक-दूसरे से दूरी 75 मिलीमीटर से अधिक नहीं हो, (पाठक माफ़ करें, अभी वाक्य पूरा नहीं हुआ है) 30 सेंटीमीटर चौड़ाई में लेवी ओर से काट कर साफ़ की हुई पट्टी में 75 मिलीमीटर कीलों द्वारा ठोंक देनी चाहिए।'
कीलें न जाने कब से दीवारों में ठोंकी जा रही हैं; पर रिपोर्ट उसका भी वर्णन इन शब्दों में करती है: 'कीलें 60 मिलीमीटर अंदर रहें और 15 मिलीमीटर बाहर रहें, जिससे जाली और दीवार के बीच में कम-से-कम 10 मिलीमीटर का अंतर यथासंभव बना रहे।'
अभी भी आपका मकान 'भूकंप सह' नहीं बना है। थोड़ा-सा धीरज और रखें। बचा हुआ काम रिपोर्ट के अनुसार कुछ इस तरह से होगाः 'अब पूरी जाली को एक और तीन के सीमेंट-रेत अनुपात के मसाले में अथवा 1:1, 5:3 के कंक्रीट द्वारा जिसमें पथरी आठ मिलीमीटर से अधिक मोटी न हो, पलस्तर कर के ढक दें। पलस्तर की मोटाई 5 मिलीमीटर से कम न हो...।'
अब है कोई माई का लाल जो इस 'सुगम विधि' से अपना घर 'भूकंप-सह' बना सकेगा? घर सुधारने की उत्कृष्ट इच्छा रखने वाले गृहस्थ तो दूर, इस सरल विधि को पढ़ने वाले पाठक भी नहीं सह पाएंगे। इसे लिखने वाले विद्वान वैज्ञानिक की शुभचिंता एक तरफ़, लेकिन क्या इन लोगों को उत्तराखंड के गांवों का भी कोई अंदाज़ है जो सड़क से एक-दो-तीन दिन तक की पैदल दूरी पर बसे हैं। वैज्ञानिक अपने अध्ययन-अध्यापन की निराली दुनिया में व्यवहार की बातें भूल बैठे हों
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