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प्रताप पीयूष/तृप्यन्ताम् ।

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(२०८)

भूलन में औ भूलावन में।
उनहीं को सुहावनो लागत है
धुरवान की धावन सावन में ॥५॥
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तृप्यन्ताम् ।
'तृप्यन्ताम्' शीर्षक कविता के थोड़े से अंश यहां दिये
जाते हैं। इस कविता में भारत की आर्थिक तथा सामाजिक
दुर्दशा का हृदय-ग्राही चित्र खींचा गया है। देवताओं से प्रार्थना
की गई है कि ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में जब अपना पेट पालना
मुश्किल हो रहा है तो उन्हें सन्तुष्ट करना मुश्किल है।

(आदर के लिए एकवचन के स्थान पर भी बहुवचन का प्रयोग होता है । अतः छंद बदलना निष्प्रयोजनीय समझा है।)
(१)
केहि विधि वैदिक कर्म होत कब कहाँ बखानत रिक यजु साम ।
हम सपने हू में नहिं जानैं रहैं पेट के बने गुलाम ।।
तुमहिं लजावत जगत जनम धरि दुहु लोकन में निपट निकाम ।
कहैं कौन मुख लाय हाय फिर ब्रह्मा बाबा तृप्यन्ताम ।।
(२)
तुमहिं रमापति वेद बतावत हम कहं दारिद गनै गुलाम ।
तुम बैकुंठ विहारी हौ प्रभु हम सब करें नरक के काम ॥
तुम कहं प्यारी लगै भक्ति, हम कहं स्वारथ प्रिय आठौ याम ।

(२०९)

अहौ विष्णु भगवान, बताओ केहि गुन कहिए तृप्यन्ताम ।।
(३)
रहे रुवाय देत रिपु कुल कहं जब हम कठिन ठानि संग्राम ।
तब तरपन हूं सोहत हो अरु भारत वीर विदित हो नाम ।।
अब तो छुरी छुवत डर लागै राज नियम बस बनिगये बाम (स्त्री)।
केहि विधि कहैं निलज है हा हा रुद्र देवता तृप्यन्ताम ।।
(४)
खोय धर्म, धन, बल, बुद्धि, विद्या, नेम, प्रेम आदिक गुण ग्राम ।
पाप पखंड अविद्या आलम औगुन के बनि रहे गुलाम ॥
यह गति देखहु निज बंशिन की सब बिधि बोरि रहे तब नाम ।
हृदय होय तौ होहु सबै ऋषि आंसुन के जल तृप्यन्ताम ।।
(५)
गये विदेश भागि भारत ते राग रागिनी सुर लय ग्राम ।
गिने जात अब इहाँ सबै गुन कलावंत कथिकन के काम ॥
लोग मृगहु से तुच्छ बसैं बहु नाद ब्रह्म सों विमुख निकाम ।
होहु जाय सरस्वति बीणा सुनि हे गन्ध्रव गन तृप्यन्ताम ।।
(६)
तब विद्या गुन कला कुशलता लन्दन माहिं करें विश्राम ।
जिन सों हमरै पितर लहत हे लोक लाभ पर लोक अराम ॥
हम तौ यहौ न जानैं तुम्हरो कैसो चरित कहा है नाम ।
क्यों बिन काज कहैं भूठे बनि आचारज कुल तृप्यन्ताम ।।

(२१०)

(७)
लक्ष्मी तुम्हरे पार गई किमि कीजै पूजा को इतमाम ।
अब यह देश डुबोय देहु बसि हम वर मांगें करि परनाम ।।
निधन (मृत्यु)उचित है निरधन को न तु कौन आसव्याकुल नर वाम ।
अंजलि जल दै कै हे सागर तुम सों कहि हैं तृप्यन्ताम ।।
(८)
उदय उछाह मरीचि करैं नहिं उर पुर तम मय रहत मुदाम ।
मरी चिरैया सरिस परै हम धरे चोंच पद पच्छ निकाम ।।
हमरी चित्त वृत्ति कहं ऐसी होहिं जु तब रुचिकर परिणाम ।
है हौ कहा हमारो हाथन हे मरीचि मुनि तृप्यन्ताम ।।
(९)
इन हाथन सों देहिं कहा जल जे सेवहिं पर चरन मुदाम ।
रहत विश्व पदनान दलित नित तेहि शिर सों किमि करैं प्रणाम ।।
जौन जीह निशि दिन सूखति है बकत खुशामद कपट कलाम ।
यासो कैसे कहैं हहा हम अहो पितामह तृप्यन्ताम ।।
(१०)
रावन रहे तिहारो नाती शिव पद रत धन बल बुधि धाम ।
उनके गुन एकौ नहिं हममें हां औगुन हैं भरे तमाम ।।
द्विज कहाय लाजहि बिहाय नित करहिं राकसन के से काम ।
जो यहि नाते रोझि सको तो पुलस्ति बाबा तृप्यन्ताम ॥
(११)
पढ़ैं पढ़ावै सोई भाषा जामें चले पेट को काम ।

(११)
करेंकरें यजन याजन उनही को जिनते मिलै नाम औ दाम ।।
देहिं धर्म धन लाज सबै बिधि लेहिं देश को शाप मुदाम ।
अहो कौन कृत देखि हमारो है हौ कृतु मुनि तृप्यन्ताम ।।
(१२)
तुम सागर में करो तपस्या बहु वर्षन सुमिरे सियराम ।
हम आंसुन में डूबि 'कुकृति बस अंतस ताप तपै बसु जाम ।।
तव मुख अग्नि कढ़ी हमरेहु मुख पर डर जारन कदै कलाम ।
ऐसेहु सह धर्मिन सो ह्वौ है कस न प्रचेता तृप्यन्ताम ॥
(१३)
देवहुती कहं सांख्य योग तुम उपदेश्यो सद गति को धाम ।
हम मातहिं इंग्लिश पढ़ि सिखवै वेद गप्प मिथ्या हैं राम ।।
केवल जाति वर्ग के डर सों जल उलचैं लै लै तब नाम ।
मन को भावन पूछि सकौ तौ कपिल देव जू तृप्यन्ताम ॥
(१४)
शिरते पग लगि कारे कपरे शुद्ध आसुरी भेष तमाम ।
भाषा औरौ मधुर आसुरी किट पिट गिट पिट ओ यू ड्याम ।।
भोजन अधिक आसुरी जिनमें बूझि न परै हलाल हराम ।
'ऐसे असुरनती हिन्दुन सों होहु न आसुरी तृप्यन्ताम ।।
(१५)
मृत भाषा समुझें संस्कृत कहं वेदन गनैं असभ्य कलाम ।
फिर का जानै किमि मानैं हम विधि निषेध कलि कुतसित काम ।।
निजता निज भाषा निज धर्महि देहिं तिलोदक आठौ जाम ।

(२१२)
तुमहूं पुरुष पुरुष बोढू सुनि वाही नाते तृप्यन्ताम ।।
(१६)
पांच पीर की पांच चुटैया हमरे सिर पर लसैं ललाम ।
तिन कहं गहे रहैं निशि वासर लोभ मोह मद मतसर काम ।।
अद्भत पंच शिखा हैं हमहूं करन हेत पुरिखन बदनाम ।
अपनों स्वांग समुझि कै हम कहं पंचशिखा मुनि तृप्यन्ताम ।।
(१७)
जन्म दान लालन पालन लहि हम रोवत बिन दाम गुलाम ।
पै हमरो विवाह हो तुम हित अनरथ मूल कलह को धाम ॥
बसि अब बात बात पर खीझौ लरौ मरौ शिर धुनौ मुदाम ।
बचन वन संघारि वहूं संग जननि देवि भव तृप्यन्ताम ।।
(१८)
विद्या बिना अभ्यसित तुम कह निज कुल रीति नीति गृह काम ।
हम पढ़ि मरें तहूं बसि जानें उदर भरन बनि विश्व गुलाम ॥
मरेहु पूजिबे जोग अहौ तुम हम जिय तहु निन्दित सब ठाम ।
फिर किन गुनन कहैं केहि मुख सों दादी देवी तृप्यन्ताम ।।
(१९)
जानै बिन छल छंद जगत के तुम सुख जीवन लह्यौ मुदाम ।
हम हैं कोटि कपट पटु तौ हूँ दुर्गति में दिन भरै तमाम ।।
मरेहु खाहु तुम खीर खांड हम जियहिं क्षुधा कृश निपट निकाम ।
कौन भांति कहि सकै अहे प्यारी परदादी तृप्यन्ताम ॥

(२१३)
(२०)
धर्म ग्रंथ अनुसार अहो तुम पूजनीय परतिष्ठा धाम ।
पै अब कलि प्रभाव गारी सम समभयो जात तिहारो नाम ।।
ताहू पर तव घर पलि कै हम भये अशिष्ट विदित सब ठाम ।
याते डरत डरत कहियत हैं एहो नाना तृप्यन्ताम ।।
(२१)
अवसर परे लुटाय दियो घर बिन स्वारथ खोई न छदाम ।
धन बल धरम मान मरजादा उलँघि कियो नहिं एकौ काम ।।
याते तव कर थित मुख जीवन मरन अनन्तर अचल अराम ।
होत कहा जु कहैं हम नाहिंहु परमातामह तृप्यन्ताम ।।
(२२)
भोजन भाषा भेष भाव जे तुम कहं भावत रहे मुदाम ।
तिन सबते प्रतिकूल सबै विधि हम व्यवहरत रहैं बसु जाम ॥
याते तुम्हरी तुष्टि करन महं कहं समरथ हम सम अघ धाम ।
वृद्ध प्रमातामह भव केवल स्वधा शब्द सुनि तृप्यन्ताम ।।
(२३)
हमरे जनम समय तुम मन महं मान्यों अति अनन्द अभिराम ।
पै किशोरपन के लच्छन लखि रह्यौ न होहै वाकों नाम ।।
अब तो औरहु नष्ट भ्रष्ट लै भोगहिं हम निज कृति परिणाम ।
कौन आसरो हमते हैहौ हे मातामहि तृप्यन्ताम ॥
(२४)
तुम जब रहीं रह्यौ तब सतयुग सुखित सुछंद साधु नर वाम ।

( २१४ )
पुजत रहे सब पितर पुरोहित गंगा तुलसी सालिकराम ॥
पै अब सुख सुचाल सरधा दलि कलि महिमा पूरति सब ठाम ।
हमते करहु न आस कहन की परनानी जी तृप्यन्ताम ॥
( २५ )
जानें हम न रहे तुम कैसे किए कौन भल अनभल काम ।
मरत जियत तव दशा रहो किमि दुख सुख कहा दिखाओ राम ।।
फिर केहि विधि सरधा सनेह जुत अंजलि देहिं लेहिं का नाम ।
इतर जन्म के बन्धुवर्ग हां लोक रीति बस तृप्यन्ताम ।।
( २६ )
सुर ऋषि पितरन हूँ कहं तरपन मन न रह्यौ थिर पाव छदाम ।
कबहूं परधन हरन विचार्यो कबहूं तकी पराई बाम ॥
तुह कहं तरपहिं केहि सरधा सों जिन कर जानहिं नाम न काम ।
भूले बिसरे नात गोत गन बचन मात्र सों तृप्यन्ताम ॥
( २७ )
देश जाति उद्धार जतन महं जो तव कुटुम गयो सुरधाम ।
तौ सुपवित्र रामनामी सों छन्यो गंग जल लेहु ललाम ॥
और जु निज दुर विसन विवस है पितृ वंश कर दियो तमाम ।
तौ यह मलिन अंगौछा निचुरत लुप्त पिंड गन तृप्यन्ताम ।।
( २८ )
हा दुरदैव आज निज पापन नहिं पेटहु की तृपति हमार ।
किन सो कहा लाय किमि पालैं छोटे सिसु अरु कृशतनु बाम ।।
वे दिन कबहूं फेरि फिरेंगे ? कहं धौं गये हाय रे राम ।

(२१५)
जब हम कहत रहे निज बूते सकल सृष्टि सों तृप्यन्ताम ॥
(२९)
पितर देवता सबते बढ़िकै माननीय तव पद अभिराम ।
कुपथ सुपथ के भेद बताए तुमहीं हमैं चिन्हाए राम ।।
तुमते उरिन न है हैं जो हम वारि देहिं सब तन धन धाम ।
सरल सनेह निहारि हमारी हूजै गुरुवर तृप्यन्ताम ॥
(३०)
जगहितैषिता धर्मनिष्ठता विपुलवीरता के करि काम ।
सुत उपजाए बिना लह्यो तुम न्यायनि लगत पितामह नाम ।।
हरि निज प्रण तजि तव प्रण राख्यो भाख्यो जिन्हें श्रुतिन सति धाम ।
श्रद्धा सरित सलिल सों हमरेहु गंग तनय जू तृप्यन्ताम ।।
|(३१)
सदा सकल जग भ्रमत रहत हौ करत प्रकाश ठाम ही ठाम ।
सांची कही कहूं देख्यो है देश हिन्द सम अचरज धाम ।।
निज भाषा हू ते निराश लहि बसहिं लोग हतभाग तमाम ।
होहु भानु भगवान देखि यह अद्भुत कौतुक तृप्यन्ताम ।।
(३२)
देख तुम्हारे फरज़न्दों का तौरो-तरीक तुमाश्रो कलाम ।
खिदमत कैसे करूँ तुम्हारी अकल नहीं कुछ करती काम ।।
आबे राङ्ग नज़र गुज़रानूं या कि मये-गुलगूं का जाम ।
मुंशी चितरगुपत साहब तसलीम कहूँ या तृप्यन्ताम ।।
हरि शशि बतसर छह असित, आसिन मास ललाम ।

(२१६)

जगहित मिश्र प्रताप मुख, निकस्यो तृप्यन्ताम ।।

लीजिये तर्पण समाप्त होगया। जिन पाठकों का जी महीनों से बार बार तृप्यन्ताम २ वांचते २ ऊब उठा हो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए कि यह राम रसरा समाप्त हो गया और जिन्हें ब्राह्मण का जोवन न रुचता हो वे भी पांच महीने और राम राम करके काट दें, फिर देख लेंगे कि हर महीने ऊट पटांग लेख और हर साल सोलह आने का तकाजा समाप्त हो गया। क्योंकि जब हम सात वर्ष से देख रहे हैं कि सहायता के नाते बाजे बाजे बड़े बड़े लखपतियों से असली दाम भी नहीं मिलते जो कुछ सहारा देते हैं वह केवल मुख से। जिनसे कुछ आसरा करो वे और कुछ लेके रहते हैं जो सचमुच सहायक हैं वे गिनती में दस भी नहीं। इसी से कई एक उत्तमोत्तम पत्र बन्द होगये कई एक आज हैं तो कल नहीं, कल हैं तो परसों नहीं । कई एक ज्यों त्यों चले जाते हैं तो केवल चलाने वाले के माथे। पर अपने राम में अब सामर्थ्य नहीं रही। बरसों से झेलते झेलते हिम्मत हार गई। फिर क्या भरोसा करें कि इस वर्ष के अन्तः में यह न सुनने में आवैगा कि कानपुर का एक मात्र हिन्दो पत्र अपने ढंग का एक मात्र ब्राह्मण पत्र समाप्त होगया।

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लोकोक्तियाँ।

भजहु प्रेम मय देवता तजहु शंक समुदाय ।
“एकै साधे सब सधै सब साधे सब जाय" ।।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।