प्रताप पीयूष/लोकोक्तियाँ।
(२१६)
जगहित मिश्र प्रताप मुख, निकस्यो तृप्यन्ताम ।।
लीजिये तर्पण समाप्त होगया। जिन पाठकों का जी महीनों से बार बार तृप्यन्ताम २ वांचते २ ऊब उठा हो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए कि यह राम रसरा समाप्त हो गया और जिन्हें ब्राह्मण का जोवन न रुचता हो वे भी पांच महीने और राम राम करके काट दें, फिर देख लेंगे कि हर महीने ऊट पटांग लेख और हर साल सोलह आने का तकाजा समाप्त हो गया। क्योंकि जब हम सात वर्ष से देख रहे हैं कि सहायता के नाते बाजे बाजे बड़े बड़े लखपतियों से असली दाम भी नहीं मिलते जो कुछ सहारा देते हैं वह केवल मुख से। जिनसे कुछ आसरा करो वे और कुछ लेके रहते हैं जो सचमुच सहायक हैं वे गिनती में दस भी नहीं। इसी से कई एक उत्तमोत्तम पत्र बन्द होगये कई एक आज हैं तो कल नहीं, कल हैं तो परसों नहीं । कई एक ज्यों त्यों चले जाते हैं तो केवल चलाने वाले के माथे। पर अपने राम में अब सामर्थ्य नहीं रही। बरसों से झेलते झेलते हिम्मत हार गई। फिर क्या भरोसा करें कि इस वर्ष के अन्तः में यह न सुनने में आवैगा कि कानपुर का एक मात्र हिन्दो पत्र अपने ढंग का एक मात्र ब्राह्मण पत्र समाप्त होगया।
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लोकोक्तियाँ।
“एकै साधे सब सधै सब साधे सब जाय" ।।
(२१७ )
चारि वेद कर सार यह सुनि राखहु सब कोय ।
'ढाई अच्छर प्रेम के पढ़ै सो पण्डित होय' ॥
व्यापक ब्रह्म सदा सब ठौर, बादि चारि धामन की दौर ।
कस न देखु मन नयन उघारि, 'कनियाँ लरिका गाँव गुहारि ॥
प्रभु करुनाकर शांति निकेत, तिहि तजि पूजत भूत परेत ।
कस सुख पावै असि मति जासु, 'दही के धोखे खाय कपासु' ।।
पढ़ि कमाय कीन्हों कहा हरे न देश कलेश ।
'जैसे कन्ता घर रहे तैसे रहे विदेश' ।।
काम निकासिय साम दाम भय भेद ते ।
सब सँग इक से रहत लहत नर खेद ते ॥
पर रुख लखि चलिवो चतुरन की बात है ।
'आंधर बैल भँवाय के जोता जात है'॥
भाय २ आपस में लरैं, परदेसिन के पायन परैं ।
दहै द्वेष भारत शशि राहु,'घर का भेदिया लंका दाहु' ।।
अपनो काम आपने ही हाथन भल होई ।
परदेशिन परधर्मिन ते आशा नहिं कोई ॥
धन धरती निज हरी सु करिहैं कौन भलाई ।
'जोगी काके मीत कलंदर केहि के भाई ॥
जिन आरम्भ शूरता कीन्हीं, विघन परत हिम्मति तजि दीन्हीं।
बिरथा श्रम कर अपजस लहिगे,'निंबुआ नोन चाटिकै रहिगे'।।
श्रमी साहसी दृढ़ बरियार, ताहि सहज जग पर अधिकार ।
झूठ न कहैं बात जग ऐसी, "जिहि कै लाठी तिहि कै भैंसी' ।।
(२१८)
मुख में चारि वेद की बातैं, मन पर धन पर तिय की घातैं।
धनि बकुला भक्तन की करनी,'हाथ सुमिरनी बगल कतरनी'।।
छोड़ि नागरी सुगुन आगरी उर्दू के रँग राते।
देसी वस्तु विहाय विदेसिन सो सर्वस्व ठगाते ।।
मूरख हिन्दू कस न लहैं दुखजिनकर यह ढंग दीठा।
'घर की खांड़ खुरखुरी लागै चोरी का गुड़ मीठा'।।
तन मन सों उद्योग न करहीं, बाबू बनिबे के हित मरहीं।
परदेसिन सेवत अनुरागे,'सब फल खाय धतूरन लागे'।।
राखहु सदा सरल बरताव, पै समझहु सब टेढ़हु भाव ।
नतरु कुटिल जन निज गति छाटैं,'सूधे का मुह कुत्ता चाटैं।।
समय को अपने जो सतसंग में बिताता है।
हरेक बात में वह दक्ष हो ही जाता है।।
किसी को क्या कोई शिक्षा सदैव देता है।
'चौतरा आपही कुतवाली सिखा लेता है'।।
('लोकोक्ति-शतक'से)
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हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ।
चहहु जो सांचहु निज कल्याण । तौ सब मिलि भारत सन्तान ।।
जपहु निरन्तर एक ज़बान । हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ॥१॥
रीझै अथवा खिझै जहान । मान होय चाहै अपमान ।
पै न तजौ रटिबे की बान । हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ॥२॥
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