प्रताप पीयूष/पंच परमेश्वर ।

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तुच्छातितुच्छ सादृश्य गन्ने से दे सकते हैं, यद्यपि वास्तविक और यथोचित सादृश्य के योग्य तो अमृत भी नहीं है। प्रिय पाठक तुम्हारी आत्मा धर्म की भूखी है कि नहीं ? यदि नहीं है तो सत्संग और सद्ग्रन्थावलोकन द्वारा इस दुष्ट रोग को नाश करें। हाय हाय । आत्मश्रेय के लिये व्याकुल न हुआ तो चित्त काहे को, पत्थर है। नहीं हमारे रसिक अवश्य हरि रस के प्यासे हैं उनसे हम पूंछते हैं क्यों भाई ! तुम अपने लिये रुक्ष स्वर्ण दंड को उत्तम समझते हो अथवा रसीले पौडे को।


पंच परमेश्वर ।

पंचत्व से परमेश्वर सृष्टि-रचना करते हैं। पंचसम्प्रदाय में परमेश्वर की उपासना होती है। पंचामृत से परमेश्वर की प्रतिमा का स्नान होता है । पंच वर्ष तक के बालकों का परमेश्वर इतना ममत्व रखते हैं कि उनके कर्तव्याकर्तव्य की ओर ध्यान न देके सदा सब प्रकार रक्षण किया करते हैं। पंचेन्द्रिय के स्वामी को वश कर लेने से परमेश्वर सहज में वश हो सकते हैं । काम पंचबाण को जगत् जय करने की, पंचगव्य को अनेक पाप हरने की, पंचप्राण को समस्त जीवधारियों के सर्वकार्य- सम्पादन की, पंचत्व (मृत्यु) को सारे झगड़े मिटा देने की, पंचरत्न को बड़े बड़ों का जी ललचाने की सामर्थ्य परमेश्वर ने

दे रक्खी है। [ १६३ ]

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धर्म में पंचसंस्कार, तीर्थों में पंचगंगा और पंचकोसी, मुसलमानों में पंच पतिव्रत आत्मा (पाक पेजतन) इत्यादि का गौरव देखके विश्वास होता है कि पंच शब्द से परमेश्वर बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है। इसी मूल पर हमारे नीति-विदाम्बर पूर्वजों ने उपर्युक्त कहावत प्रसिद्ध की है। जिसमें सर्वसाधारण संसारी-व्यवहारी लोग (यदि परमेश्वर को मानते हों तो) पंच अर्थात् अनेक जनसमुदाय को परमेश्वर का प्रतिनिधि समझे। क्योंकि परमेश्वर निराकार निर्विकार होने के कारण न किसी को वाह्य चक्षु के द्वारा दिखाई देता है, न कभी किसी ने उसे कोई काम करते देखा; पर यह अनेक बुद्धिमानों का सिद्धान्त है कि जिस बात को पंच कहते वा करते हैं वह अनेकांश में यथार्थ ही होती है । इसी सेः-

“पांच पंच मिल कीजै काज, हारे जीते होय न लाज," तथा-

“बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो,
ज़बाने खल्क को नकारए खुदा समझो।”

इत्यादि वचन पढ़े लिखों के हैं, और–'पांच पंच कै भाषा अमिट होती है', 'पंचन का बैर कै कै को तिष्ठा है' इत्यादि वाक्य साधारण लोगों के मुंह से बात २ पर निकलते रहते हैं। विचार के देखिए तो इसमें कोई सन्देह भी नहीं है कि-

'जब जेहि रघुपति करहिं जस, सो तस तेहि छिन होय'

की भांति पंच भी जिसको जैसा ठहरा देते हैं वह वैसा ही [ १६४ ]

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बन जाता है। आप चाहे जैसे बलवान, धनवान, विद्वान हों;पर यदि पंच की मरजी के खिलाफ़ चलिएगा तो अपने मन में चाहे जैसे बने बैठे रहिए, पर संसार से आपका वा आपसे संसार का कोई काम निकलना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य हो जायगा। हां, सब झगड़े छोड़कर विरक्त हो जाइए तो और बात है । पर, उस दशा में भी पंचभूतमय देह एवं पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय का झंझट लगा ही रहेगा। इसी से कहते हैं कि पंच का पीछा पकड़े बिना किसी का निर्बाह नहीं। क्योंकि पंच जो कुछ करते हैं, उसमें परमेश्वर का संसर्ग अवश्य रहता है, और परमेश्वर जो कुछ करता है वह पंच ही के द्वारा सिद्ध होता है। बरंच यह कहना भी अनुचित नहीं है कि पंच न होते तो परमेश्वर का कोई नाम भी न जानता। पृथ्वी पर के नदी, पर्वत, वृक्ष, पशु, पक्षी और आकाश के सूर्य, चंद्र, ग्रह, उपग्रह नक्षत्रादि से परमेश्वर की महिमा विदित होती सही, पर किसको विदित होती ? अकेले परमेश्वर ही अपनी महिमा लिए बैठे रहते।

सच पूछो तो परमेश्वर को भी पंच से बड़ा सहारा मिलता है । जब चाहा कि अमुक देश को पृथ्वी भर का मुकुट बनावैं, बस आज एक, कल दो, परसो सौ के जी में सद्गुणों का प्रचार करके पंच लोगों को श्रमी, साहसी, नीतिमान् , प्रीतिमान बना दिया । कंचन बरसने लगा। जहां जी में आया कि अमुक जाति अब अपने बल, बुद्धि, वैभव के घमंड के मारे बहुत
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उन्नतग्रीव हो गई है, इसका सिर फोड़ना चाहिए, वहीं दो चार लोगों के द्वारा पंच के हृदय में फूट फैला दी। बस, बात की बात में सब के करम फूट गए। चाहे जहां का इति- हास देखिए, यही अवगत होगा कि वहां के अधिकांश लोगों की चित्तवृत्ति का परिणाम ही उन्नति या अवनति का मूल कारण होता है।

जब जहां के अनेक लोग जिस ढर्रे पर झुके होते हैं तब थोड़े से लोगों का उसके विरुद्ध पदार्पण करना--चाहे अति श्लाघनीय उद्देश्य से भी हो पर अपने जीवन को कंटकमय करना है । जो लोग संसार का सामना करके दूसरों के उद्धारार्थ अपना सर्वस्व नाश करने पर कटिबद्ध हो जाते हैं वे मरने के पीछे यश अवश्य पाते हैं, पर कब ? जब उस काल के पंच उन्हें अपनाते हैं तभी। पर ऐसे लोग जीते जी आराम से छिनभर नहीं बैठने पाते, क्योंकि पंच की इच्छा के विरुद्ध चलना पर- मेश्वर की इच्छा के विरुद्ध चलना है, और परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध चलना पाप है, जिसका दंड-भोग किए बिना किसी का बचाव नहीं। इसमें महात्मापन काम नहीं आता। पर ऐसे पुरुषरत्न कभी कहीं सैकड़ों सहस्रों वर्ष पीछे लाखों करोड़ों में से एक आध दिखाई देते हैं। सो भी किसी ऐसे काम की नींव डालने को जिसका बहुत दिन आगे पीछे लाखों लोगों को शान-गुमान भी नहीं होता। अतः ऐसों को संसार

में गिनना ही व्यर्थ है । वे अपने वैकुण्ठ, कैलाश, गोलोक, हेविन
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बहिश्त कहीं से आ जाते होंगे। हमें उनसे क्या । हम सांसारिकों के लिए तो यही सर्वोपरि सुख-साधन का उपाय है कि हमारे पंच यदि सचमुच विनाश की ओर जा रहे हों तो भी उन्हीं का अनुगमन करें। तो देखेंगे कि दुख में भी एक अपूर्व सुख मिलता है । जैसे कि अगले लोग कह गए हैं कि-

"पंचों शामिल मर गया जैसे गया बरात ।"
“मर्गे गएगम्बोह जशनेदारद ।”

जिसके जाति, कुटुम्ब, हेती-व्यवहारी, इष्ट-मित्र, अड़ोसी- पड़ोसी में से एक भी मर जाता है उसके मंह से यह कभी नहीं निकलता कि परमेश्वर ने दया की। क्योंकि जब परमेश्वर ने पंचों में से एक अंश खींच लिया तो दया कैसी। बरंच यह कहना चाहिए कि हमारे जीवन की पूंजी में से एक भाग छीन लिया। पर अनुमान करो कि यदि किसी पुरुष के इष्ट-मित्रों में से कोई न रहे तो उसके जीवन की क्या दशा होगी। क्या उसके लिए जीने से मरना अधिक प्रिय न होगा ? फिर इसमें क्या संदेह है कि पंच और परमेश्वर कहने को दो हैं, पर शक्ति एक ही रखते हैं । जिस पर यह प्रसन्न होंगे वही उसकी प्रसन्नता का प्रत्यक्ष फल लाभ कर सकता है। जो इनकी दृष्टि में तिरस्कृत है वह उसकी दृष्टि में भी दयापात्र नहीं है। अपने ही लों वह कैसा ही अच्छा क्यों न हो। पर इसमें मीन मेख नहीं है कि संसार में उसका होना न होना बराबर होगा। मरने पर भी

अकेला वैकुण्ठ में क्या सुख देखेगा। इसी से कहा है-
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"जियत हंसी जो जगत में, मरे मुक्ति केहि काज" क्या कोई सकल सद्गुणालंकृत व्यक्ति समस्त सुख-सामग्री- संयुक्त, सुवर्ण के मदिर में भी एकाकी रहके सुख से कुछ काल रह सकता है ? ऐसी २ बातों को देख सुन, सोच समझके भी जो लोग किसी डर या लालच या दबाव में फँसके पंच के. विरुद्ध हो बैठते हैं, अथवा द्वेषियों का पक्ष समर्थन करने लगते हैं वे हम नहीं जानते कि परमेश्वर, (प्रकृति) दीन, ईमान, धर्म, कर्म, विद्या, बुद्धि, सहृदयता और मनुष्यत्व को क्या मुंह दिखाते होंगे ? हमने माना कि थोड़े से हठी, दुराग्रही लोगों के द्वारा उन्हें मन का धन, कोरा पद, झूठी प्रशंसा, मिलनी सम्भव है, पर इसके साथ अपनी अंतरात्मा (कानशेन्स) के गले पर छूरी चलाने का पाप तथा पंचों का श्राप भी ऐसा लग जाता है कि जीवन को नर्कमय कर देता है, और एक न एक दिन अवश्व भंडा फूट के सारी शेखी मिटा देता है। यदि ईश्वर की किसी हिकमत से जीते जी ऐसा न भी हो तो मरने के पीछे आत्मा की दुर्गति, दुर्नाम, अपकीर्ति एवं संतान के लिए लज्जा तो कहीं गई ही नहीं। क्योंकि पंच का बैरी परमेश्वर का बैरी है, और परमेश्वर के वैरी के लिए कहीं शरण नहीं है-

राखि को सकै रामकर द्रोही।

पाठक ! तुम्हें परमेश्वर की दया और बड़ों बूढ़ों के उद्योग से विद्या का अभाव नहीं है। अतः आंखें पसार के देखो कि तुम्हारे जीवनकाल में पढ़ी लिखी सृष्टिवाले पंच किस
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ओर झुक रहे हैं, और अपने ग्रहण किये हुए माग पर किस दृढ़ता, वीरता और अकृत्रिमता से जा रहे हैं कि थोड़े से विरोधियों की गाली धमकी तो क्या, बरंच लाठी तक खाके हतोत्साह नहीं होते, और स्त्री-पुत्र, धन-जन क्या, बरंच आत्म- विसर्जन तक का उदाहरण बनने को प्रस्तुत हैं। क्या तुम्हें भी उसी पथ का अवलंबन करना मंगलदायक न होगा ? यदि बहकानेवाले रोचक और भयानक बातों से लाख बार करोड़ प्रकार समझावें तो भी ध्यान न देना चाहिए । इस बात को यथार्थ समझना चाहिए कि पंच ही का अनुकरण परम कर्तव्य है। क्योंकि पंच और परमेश्वर का बड़ा गहिरा सम्बन्ध है। बस इसी मुख्य बात पर अचल विश्वास रखके पंच के अनुकूल मार्ग पर चले जाइये तो दो ही चार मास में देख लीजियेगा कि बड़े २ लोग आपके साथ बड़े स्नेह से सहानुभूति करने लगेंगे, और बड़े २ विरोधी साम, दाम, दंड, भेद से भी आपका कुछ न कर सकेंगे। क्योंकि सब से बड़े परमेश्वर हैं, और उन्होंने अपनी बड़ाई के बड़े २ अधिकार पंच महोदय को दे रक्खे हैं। अतः उनके आश्रित, उनके हितैषी, उनके कृपापात्र का कभी कहीं किसी के द्वारा वास्तविक अनिष्ट नहीं हो सकता। इससे चाहिए कि इसी क्षण भगवान् पंचवक्त का स्मरण करके पंच परमेश्वर के हो रहिए तो सदा सर्वदा पंचपांडव की भांति निश्चिंत रहिएगा।


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स्वतन्त्र ।

हमारे बाबू साहब ने बरसों स्कूल की खाक छानी है, बीसियों मास्टरों का दिमाग चाट डाला है, विलायतभर के ग्रन्थ चरे बैठे हैं; पर आज तक हिस्ट्री, जियोग्रफी आदि रटाने में विद्या-विभाग के अधिकारीगण जितना समय नष्ट कराते हैं, उसका शतांश भी स्वास्थ्य-रक्षा और सदाचार-शिक्षा में लगाया जाता हो तो बतलाइए ! यही कारण है कि जितने बी० ए०, एम० ए०, देखने में आते हैं उनका शरीर प्रायः ऐसा ही होता है कि आंधी आवै तो उड़ जाय। इसी कारण उनके बड़े २ खयालात या तो देश पर कुछ प्रभाव ही नहीं डालने पाते वा उलटा असर दिखाते हैं। क्योंकि तन और मन का इतना दृढ़ सम्बंध है कि एक बेकाम हो तो दूसरा भी पूरा काम नहीं दे सकता, और यहां देह के निरोग रखनेवाले नियमों पर आरंभ से आज तक कभी ध्यान ही नहीं पहुंचा। फिर काया के निकम्मेपन में क्या सन्देह है, और ऐसी दशा में दिल और दिमाग़ निर्दोष न हों तो आश्चर्य क्या है ! ऊपर से आपको अपने देश के जल-वायु के अनुकूल आहार-विहार आदि नापसंद ठहरे। इससे और भी तन्दुरुस्ती में नेचर का शाप लगा रहता है। इस पर भी जो कोई रोग उभड़ आया तौ चौगुने दाम लगाके, अठगुना समय गंवाके विदेशी ही औषधि का व्यवहार करेंगे, जिसका फल प्रत्यक्ष-रूप से चाहे अच्छा भी

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