प्रताप पीयूष/स्वतन्त्र ।

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स्वतन्त्र ।

हमारे बाबू साहब ने बरसों स्कूल की खाक छानी है, बीसियों मास्टरों का दिमाग चाट डाला है, विलायतभर के ग्रन्थ चरे बैठे हैं; पर आज तक हिस्ट्री, जियोग्रफी आदि रटाने में विद्या-विभाग के अधिकारीगण जितना समय नष्ट कराते हैं, उसका शतांश भी स्वास्थ्य-रक्षा और सदाचार-शिक्षा में लगाया जाता हो तो बतलाइए ! यही कारण है कि जितने बी० ए०, एम० ए०, देखने में आते हैं उनका शरीर प्रायः ऐसा ही होता है कि आंधी आवै तो उड़ जाय। इसी कारण उनके बड़े २ खयालात या तो देश पर कुछ प्रभाव ही नहीं डालने पाते वा उलटा असर दिखाते हैं। क्योंकि तन और मन का इतना दृढ़ सम्बंध है कि एक बेकाम हो तो दूसरा भी पूरा काम नहीं दे सकता, और यहां देह के निरोग रखनेवाले नियमों पर आरंभ से आज तक कभी ध्यान ही नहीं पहुंचा। फिर काया के निकम्मेपन में क्या सन्देह है, और ऐसी दशा में दिल और दिमाग़ निर्दोष न हों तो आश्चर्य क्या है ! ऊपर से आपको अपने देश के जल-वायु के अनुकूल आहार-विहार आदि नापसंद ठहरे। इससे और भी तन्दुरुस्ती में नेचर का शाप लगा रहता है। इस पर भी जो कोई रोग उभड़ आया तौ चौगुने दाम लगाके, अठगुना समय गंवाके विदेशी ही औषधि का

व्यवहार करेंगे, जिसका फल प्रत्यक्ष-रूप से चाहे अच्छा भी [ १७० ]
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दिखाई दे, पर वास्तव में धन और धर्म ही नहीं, बरंच देशीय रहन-सहन के विरुद्ध होने से स्वास्थ्य को भी ठीक नहीं रखता, जन्म-रोगीपने की कोई न कोई डिग्री अवश्य प्राप्त करा देता है !

यदि सौ अँटिलमैन इकट्ठे हों तो कदाचित् ऐसे दस भी न निकलेंगे जो सचमुच किसी राजरोग की कुछ न कुछ शिका- यत न रखते हों। इस दशा में हम कह सकते हैं कि आप-रूप का शरीर तो स्वतंत्र नहीं है, डाक्टर साहब के हाथ का खिलौना है। यदि भूख से अधिक डबल रोटी का चौथाई भाग भी खा लें वा ब्रांडी-देवी का चरणोदक आधा आउंस भी पी लें तो मरना जीना ईश्वर के आधीन है, पर कुछ दिन वा घंटों के लिए जमपुरी के फाटक तक अवश्य हो आवैंगे, और वहां कुछ भेंट चढ़ाये और 'हा हा, हू हू' का गीत गाए बिना न लौटेंगे। फिर कौन कह सकता है कि मिस्टर विदेशदास अपने शरीर से स्वतंत्र हैं ?

और सुनिए, अब वह दिन तो रहे ही नहीं कि देश का धन देश ही में रहता हो, और प्रत्येक व्यवसायी को निश्चय हो कि जिस वर्ष धंधा चल गया उसी वर्ष, वा जिस दिन स्वामी प्रसन्न हो गया उसी दिन, सब दुःख-दारिद्र दूर हो जायगे । अब तो वह समय लगा है कि तीन खाओ तेरह की भूख सभी को बनी रहती है। रोजगार-व्यवहार के द्वारा साधारण रीति से

निर्वाह होता रहे, यही बहुत है । विशेष कार्यों में व्यय करने के
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अवसर पर आज कल सैकड़ा पीछे दश जने भी ऐसे नहीं देख पड़ते जो चिंता से व्यस्त न हो जाते हों । इस पर भी हमारे हिन्दुस्तानी साहब के पिता ने सपूतजी के पढ़ाने में भली चंगी रोकड़ उठा दी है।

इधर आपने जब से स्कूल में पांव रक्खा है तभी से विलायती वस्तुओं के व्यवहार की लत डालके खर्च बढ़ा रक्खा है। यों लेकचर देने में चाहे जैसी सुन लीजिए, पर बर्ताव देखिए तो पूरा सात समुद्र के पार ही का पाइएगा! इस पर भी ऐसे लोगों की संख्या इस देश में अब बहुत नहीं है, जो धाए धूपे बिना अपना तथा कुटुम्ब का पालन कर सकते हों । इससे बाबू साहब को भी पेट के लिए कुछ करना पड़ता है, सो और कुछ न कर सकते हैं, न करने में अपनी इज्जत समझते हैं। अतः हेर फेरकर नौकरी ही की शरण सूझती है । वहां भी काले रंग के कारण इनकी विद्या-बुद्धि का उचित आदर नहीं । ऊपर से भूख के बिना भोजन करने में स्वास्थ्य-नाश हो, खाने के पीछे झपट के चलने से रोगों की उत्पत्ति हो, तो हो, पर डिउटी पर ठीक समय में न पहुंचे तो रहें कहां ?

बाजे २ महकमों में अवसर पड़ने पर न दिन छुट्टी न रात छुट्टो, पर छुट्टी का यत्न करें तो नौकरी ही से छुट्टी हो जाने का डर है । इस पर भी जो कहीं मालिक कड़े मिजाज का हुवा तो और भी कोढ़ में खाज है, पर उसकी झिड़की
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आदि न खाएँ तो रोटी कहां से खाएँ ? यह छूतें न भी हों तो भी नौकरी की जड़ कितनी ? ऐसी २ बातें बहुधा देखकर कौन न कहेगा कि काले रंग के गोरे मिजाज़वाले साहब अपने निर्वाहोपयोगी कर्तव्य में भी स्वतंत्र नहीं हैं।

अब घर की दशा देखिए तो यदि कोऊ और बड़ा बूढ़ा हुवा, और इनका दबैल न हुवा तौ तो जीभ से चिट्ठी का लिफाफा चाटने तक को स्वतंत्रता नहीं । बाहर भले ही जाति, कुजाति, अजाति के साथ भच्छ, कुभच्छ, अभच्छ भच्छन कर आचैं पर देहली पर पांव धरते ही हिन्दू आचार का नाट्य न करें तो किसी काम के न रक्खें जायें । बहुत नहीं तो वाक्य-बाणों ही से छेदके छलनी कर दिये जायं । हयादार को इतना भी थोड़ा नहीं है । हां यदि 'एक लज्जाम्परित्यज त्रैलोक्य विजयी भवेत्' का सिद्धान्त रखते हों, और खाने भर को कमा भी लेते हों वा घर के करता धरता आपही हों तो इतना कर सकते हैं कि बबुआइन कोई सुशिक्षा दें तो उनको डांट लें, पर यह मजाल नहीं है कि उन्हें अपनी राह पर ला सकें, क्योंकि परमेश्वर की दया से अभी भारत की कुलांगनाओं पर कलियुग का पूरा प्रभाव नहीं हुवा। इससे उनमें सनातनधर्म, सत्कर्म, कुलाचार, सुव्यवहार का निरा अभाव भी नहीं है।

आप-सरूप भले ही तीर्थ, व्रत, देव, पितर आदि को कुछ न समझिए पर वे नंगे पांव माघ मास में कोसों की थकावट

उठाकर गंगा-यमुनादि का स्नान अवश्य करेंगी, हरतालिका के
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दिन चाहे बरसों की रोगिणी क्यों न हों, पर अन्न की कणिका वा जल की बूंद कभी मुंह में न धरेंगी, रामनौमी, जन्माष्टमी,पितृविसर्जनी आदि आने पर, चाहे जैसे हो, थोड़ा बहुत धर्मो-त्सव अवश्य करेंगी। सच पूछो तो आर्यत्व की स्थिरता में वही अनेकांश श्रद्धा दिखाती हैं, नहीं आपने तो छब्बीसाक्षरी मंत्र पढ़कर चुरुटाग्नि में सभी कुछ स्वाहा कर रक्खा है।

यद्यपि गृहेश्वरी के यजन-भजन का उद्देश्य प्रायः आप ही के मंगलार्थ होता है, पर आप तो मन और वचन से इस देश ही के न ठहरे। फिर यहांवालों के आंतरिक भाव कैसे समझे ? बन्दर की ओर बरफ़ी लेकर हाथ उठाओ तौ भी वह ढेला ही समझ कर खी, खी, करता हुआ भागेगा! विचारी सीधी सादी अबला-बाला ने न कभी विधर्मी शिक्षा पाई है, न मुंह खोलके कभी मरते २ भी अपने पराए लोगों में नाना भांति की जटल्ले कहने सुनने का साहस रखती हैं। फिर बाबू साहब को कैसे लेक्चरबाज़ी करके सभझा दें कि तोता मैना तक मनुष्य की बोली सीखके मनुष्य नहीं हो जाते, फिर आपही राजभाषा सीख कर कैसे राजजातीय हो जायंगे ? देह का रंग तो बदल ही नहीं सकते, और सब बातें क्यों कर बदल लीजिएगा ? हां, दूसरे की चाल चलकर कृतकार्य तो कोई हुवा नहीं, अपनी हंसी कराना होता है वही करा लीजिए।

अब यहां पर विचारने का स्थल है कि जहां दो मनुष्य

न्यारे २ स्वभाव के हों, और एक की बातें दूसरे को घृणित
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जान पड़ती हों वहां चित्त की प्रसन्नता किस प्रकार हो सकती है। स्त्री चाहे धर्म के अनुरोध से इनकी कुचाल का सहन भी कर ले, पर लोक-लज्जा के भय से गले में हाथ डालके सैर तो कभी न करैगी, और ऐसा न हुआ तो इनका जन्म सफल होना असंभव है ! इससे मन ही मन कुढ़ने व बात २ पर खौखियाने के सिवा कुछ बन नहीं पड़ता, फिर कैसे कहिए कि आप अपने घर में स्वतंत्र हैं !

रही घर के बाहर की बात, वहां अपने ही टाइपवालों में चाहें जैसे गिने जाते हों, पर देश का अधिकांश न इनकी प्यारी भाषा को समझता है, न भेष पसंद करता है, न इनके से आंतरिक और वाहिक भावों से रुचि रखता है ! इससे बहुत लोग तो इनकी सूरत ही से क्रिष्टान जानकर मुंह बिचकाते हैं, इससे इनका बक २ झक २ करना देशवासियों पर यदि प्रभाव करे भी तो कितना कर सकता है। हां, जो लोग इनके सम्बन्धी हैं, और भली भांति ऊपरी व्यवहारों से परिचय रखते हैं वे कोट पतलून आदि देखके न चौकेंगे, किन्तु यदि इनके भोजन की खबर पा जायँ तो क्षणभर में दूध की सी मक्खी निकाल बाहर करें। छुवा पानी पीना तो दूर रहा, इन्हें देखके मत्था पटकौवल (दुवा सलाम) तक के रवादार न हों। एक बार हमने एक मित्र से पूछा कि बहुत से अन्यधर्मी और अन्य-जाती हमारे आपके ऐसे मित्र भी हैं, जिनके समागम से जी हुलस उठता

है, पर यदि कोई हमारा आपका भैयाचार, नातेदार वा परिचयी
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विधर्मी हो जाता है-विधर्मी कैसा, किसी नई समाज में नाम तक लिखा लेता है- तो उसे देखके घिन आती है । बोलने को जी नहीं चाहता । इसका क्या कारण है ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा था कि वेश्याओं के तहां हम तुम जाते हैं कि कुछ काल जी बहलावेंगे, किन्तु यदि कोई अपनी सम्बन्धिनी स्त्री का, बाजार में जा बैठना कैसा, गुप्त रीति से भी वारविलासिनियों का सा तनिक भी आचरण रखती हुई सुन पड़े तो उसके पास बैठने वा बातें करने से जी कभी न बहलेगा, बरंच उसका मुंह देखके वा नाम सुनके लज्जा, क्रोध, घृणा आदि के मारे मन में आवैगा कि अपना और उसका जी एक कर डालें।

योंयों ही पर-पथावालम्बियों का भी हाल समझ लो। यह जीवधारियों का जाति-स्वभाव है कि इतरों में अपनायत का लेश पाकर जैसे अधिक आदर करते हैं वैसे ही अपनों में इतरता की गन्ध भी आती है तो जी बिगाड़ लेते हैं, और जहां एक मनुष्य को बहुत लोगों के रुष्ट हो जाने का भय लगा हो वहां स्वतंत्रत कहां ? अतः हमारे लेख का लक्ष्य महाशय कुटुम्ब की अपेक्षा देश-जातिवालों के मध्य और भी परतंत्र हैं।

यदि यह समझा जाय कि घर-दुवार, देश जाति को तिलां- जलि देकर जिनके साथ तन्मय होने के अभिलाषी हैं उनमें जा मिलें तो स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं। यह आशा निरी दुराशा है । उच्च प्रकृति के अंगरेज़ ऐसों को इस विचार से तुच्छ

समझते हैं कि जो अपनों ही का नहीं हुवा वह हमारा क्या
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होगा ? बुद्धिमानों की आज्ञा है कि जिसके साथ मित्रता करनी हो उसका पहिले यह पता लगा लो कि वह अपने पहिले मित्रों के साथ कैसा बर्ताव रखता था। रहे अनुदार स्वभाव वाले गौरांग, वह विद्या, बुद्धि, सौजन्य आदि पर पीछे दृष्टि करते होंगे, पहिले काला रंग देख कर और नेटिव नाम ही सुनकर घृणापात्र समझ लेते हैं। हां, अपना रुपया और समय नष्ट करके मानापमान का विचार छोड़के साधारणों की स्तुति-प्रार्थनादि करते रहैं तो ज़बानी खातिर वा मन के धन की कमी नहीं है,............................
फिर उसे पाके कोई सच्चा स्वतंत्र क्या होगा ?

इसके सिवा किसी से ऋण लें तो चुकाने में स्वतंत्रता नहीं, कोई राज-नियम के विरुद्ध काम कर बैठें तो दंड-प्राप्ति में स्वतंत्र नहीं, नेचर का विरोध करें तो दुःख सहने में स्वतंत्र नहीं, सामर्थ्य का तनिक भी उल्लंघन करने पर किसी काम में स्वतंत्र नहीं, कोई प्रबल मनुष्य, पशु, वा रोग आ घेरे तो जान बचाने में स्वतंत्र नहीं, मरने जीने में स्वतंत्र नहीं, कहां तक कहिए, अपने सिर के एक बाल को इच्छानुसार उजला, काला करने में स्वतंत्र नहीं, जिधर देखो परतंत्रता ही दृष्टि पड़ती है। पर आप अपने को स्वतंत्र ही नहीं, बरच स्व- तंत्रता का तत्वज्ञ और प्रचारकर्ता माने बैठे हैं ! क्या कोई बतला सकता है कि यह माया-गुलाम साहब किस बात में

स्वतंत्र हैं ? [ १७७ ]

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हां, हमसे सुनो, आप वेद-शास्त्र-पुराणादि पर राय देने में स्वतंत्र हैं, संस्कृत का काला अक्षर नहीं जानते, हिन्दी के भी साहित्य को खाक धूल नहीं समझते, पर इसका पूरा ज्ञान रखते हैं कि वेद पुराने जंगलियों के गीत हैं, वा पुराण स्वार्थियों की गढ़ी हुई झूठी कहानियां हैं, धर्मशास्त्र में ब्राह्मणों का पक्षपात भरा हुआ है, ज्योतिष तथा मन्त्र-शास्त्रादि ठगविद्या हैं । ऐसी २ बे सिर-पैर की सत्यानाशी रागिनी अलापने में स्वतंत्र हैं। यदि ऐसी बातें इन्हीं के पेट में बनी रहें तो भी अधिक भय नहीं है, समझनेवाले समझ लें कि थोड़े से आत्मिक रोगी भी देश में पड़े हैं, उनके लुढ़कते ही 'खसकम जहान पाक' हो जायगा । पर यह स्वतंत्रता के भुक्खड़ व्याख्यानों और लेखों के द्वारा भारत-संतानमात्र को अपना पिछलगा बनाने में सयत्र्न रहते हैं, यही बड़ी भारी खाध है।

यद्यपि इनके मनोरथों की सफलता पूरी क्या अधूरी भी नहीं हो सकती, पर जो इन्हीं के से कच्ची खोपड़ी और विलायती दिमागवाले हैं वह बकवास सुनते ही अपनी बनगैली चाल में दृढ़ हो जाते हैं, और 'योंहीं रुलासी बैठी थी ऊपर से भैया आगया' का उदाहरण बन बैठते हैं, तथा इस रीति से ऐसों की संख्या कुछ न कुछ बढ़ रहती, औरहै सम्भव है कि योंही ढचरा चला जाय तो और भी बढ़कर भारतीयत्व के पक्ष में बुरा फल दिखावै।

वहीं विदेश के बुद्धिमान तनिक भी हमारे सद्विद्या-भंडार [ १७८ ]

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से परिचित होते हैं, तो प्राचीनकाल के महर्षियों की बुद्धि पर बलि २ जाते हैं, बरंच बहुतेरे उनकी आज्ञा पर भी चलने लगते हैं, और इसके पुरस्कार में परमात्मा उन्हें सुख-सुयश का भागी प्रत्यक्ष में बना देता है, तथा परोक्ष के लिए अनन्त मङ्गल का निश्चय उनकी आत्मा को आप हो जाता है। यह देखकर भी जिस हिन्दू की आखें न खुलें, और इतना न सूझे कि जिन दिव्य रत्नों को दूर २ के परीक्षक भी गौरव से देखते हैं, उन्हें कांच बतलाना अपनी ही मनोवृष्टि का दोष दिखलाना वा अपने अग्रगन्ता की अतिमानुषी बुद्धि का बैभव जतलाना है, और जो ऐसा साहस करने में स्वतंत्र बनता है उसके लिए विचारशील- मात्र कह सकते हैं कि यह स्वतंत्रता एक प्रकार का मालीखूलिया (उन्माद) है, जिसका लक्षण है-किसी बात वा वस्तु को कुछ का कुछ समझ लेना, वा बिन जानी बात में अपने को ज्ञाता एवं शक्ति से बाहर काम करने में समर्थ मान बैठना।

यह रोग बहुधा मस्तिष्क-शक्ति की हीनता से उत्पन्न होता है, और बहुत काल तक एक ही प्रकार के विचार में मग्न रहने से बद्धमूल हो जाता है। आश्चर्य नहीं कि स्वतंत्र देश के स्वतंत्राचारियों ही की बातें लड़कपन से सुनते २ और अपनी रीति-नीति का कुछ ज्ञान-गौरव न होने पर दूसरों के मुख से उनकी निन्दा सहते २ ऐसा भ्रम हो जाता हो कि हम स्वतंत्र हैं, तथा इस स्वतंत्रता का परिचय देने में और ठौर सुभीता 'न

देखकर अनबोल पुस्तकों ही के सिद्धान्तों पर मुंह मारना सहज
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समझकर ऐसा कर उठाते हों। इससे हमारी समझ में तो और कोई स्वतंत्रता न होने पर केवल इसी रीति की स्वतंत्रता को दिमाग का खलल समझना चाहिए । फिर भला जिनके विषय में हम इतना बक गए वह बुद्धि-विभ्रम के रोगी हैं वा स्वतंत्र हैं ?

परतंत्रता के जो २ स्थान ऊपर गिना आए हैं उस ढंग के स्थलों पर स्वतंत्रता दिखावैं तो शीघ्र ही धृष्टता का फल मिल जाता है । इससे स्वतंत्र नहीं बनते। यदि परमेश्वर हमारा कहा मानें तो हम अनुरोध करें कि देव, पितृ, धर्म-ग्रन्थादि की निन्दा जिस समय कोई करे उसी समय उसके मुंह में और नहीं तो एक ऐसी फुड़िया ही उपजा दिया कीजिए, जिसकी पीड़ा से दो चार दिन नींद-भूख के लाले पड़े रहें, अथवा पंचों में हमारा चलता हो तो उन्हीं से निवेदन करें कि निंदकमात्र के लिए जातीय कठिन दंड ठहरा दीजिए फिर देखें बाबू साहब कैसे स्वतंत्र हैं !


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कविता (सामयिक)

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