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प्रताप पीयूष/हिंदी-गद्य और प्रतापनारायण

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कभी कभी सामयिक विषयों पर भी बड़े व्यंग-पूर्ण लेख 'ब्राह्मण' में निकला करते थे। 'मिडिल क्लास', 'इन्कमटैक्स', 'होली है अथवा होरी है', 'पड़े पत्थर समझ पर आपकी समझे तो क्या समझे' इस प्रकार के लेखों में से हैं। इसके सिवाय साधारण विषयों पर मुहावरेदार सीधी-सादी किंतु सजीव भाषा में बहुत से निबंध भी हुआ करते थे। इनमें से उत्तमोत्तम निबंध प्रस्तुत संग्रह में दिये जाते हैं।

इनमें से हम 'भौं', 'बालक', 'सोना', 'युवावस्था', 'द', 'ट', 'परीक्षा', 'मायावादी अवश्य नर्क में जावेंगे', 'नास्तिक', 'शिवमूर्ति', 'समझदार की मौत है', को काफी ऊँचा स्थान देते हैं। हाँ, उनकी भाषा तथा उनके भावों में इतनी प्रौढ़ता नहीं है जितनी कि पंडित बालकृष्ण भट्ट के प्रबंधों में है। फिर भी जिस उद्देश्य को सामने रख कर वे लिखे गये थे उसकी पूर्ति अच्छी तरह से हो गई है। यह उद्देश्य मनोरंजनपूर्ण शिक्षा देना तथा हिंदी की ओर लोगों की अभिरुचि उद्दीप्त करना था।


हिंदी-गद्य और प्रतापनारायण

पंडित प्रतापनाराण जी केवल उपदेशक अथवा हिंदी-प्रचारक ही नहीं थे। हिंदी में संपादन-साहित्य और स्थायी साहित्य का घनिष्ट संयोग स्थापित करके उन्होंने गद्य-शैली को सुचारु आधु-निक रूप देने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।

उनके समसामयिक गद्य-लेखकों में पं० बालकृष्ण भट्ट

और भारतेंदु हरिश्चंद्र प्रधान थे। भट्ट जी ने अपने हिंदी-प्रदीप' के द्वारा ठीक उसी प्रकार हिंदी-गद्य की अभिवृद्धि करने का प्रयत्न किया है जैसा कि मिश्र जी ने 'ब्राह्मण' के द्वारा किया है। दोनों ही का प्रधान उद्देश्य जनसाधारण की रुचि हिंदी की ओर आकर्षित करना तथा होनहार लेखकों को प्रोत्साहन देना था।'हिंदी-प्रदीप' के लेख कहीं ऊँचे दर्जे के होते थे, किंतु 'ब्राह्मण' विशेषकर अधकचरे पाठकों के मनोविनोद का मसाला प्रस्तुत करता था।

इसके सिवाय प्रतापनारायण जी जिस ढंग की शैली का व्यवहार करते हैं, वह मुहावरों, लोकोक्तियाँ तथा हास्य-व्यंग से सराबोर होने के कारण रोचक तो खूब जान पड़ती है, पर वह उत्कृष्ट कोटि की कदापि नहीं कही जा सकती; क्योंकि उसमें बहुत जगह भाषा-शैथिल्य, व्याकरण-दोष तथा अन्य प्रकार की असमीचीनता है। विराम-चिह्नों का तो नाम तक नहीं मिलता। मजाक करने में भी कहीं कहीं मिश्र जी साधारण शिष्टता का उल्लंघन बे रोक-टोक कर डालते हैं।

इन खटकनेवाले दोषों के रहते हुए भी प्रतापनारायण की गद्य-शैली पुराने गद्य-लेखकों की शैली का अत्यंत परिपक्व तथा विकसित रूप है। उसका मुख्य गुण यह है कि वह बड़ी सुबोध और भावपूर्ण है। दूसरे उसमें वह गुण है जो प्रत्येक उच्चकोटि के गद्य में मिलता है, अर्थात् प्रतापनारायण जी के लेखों को पढ़कर पाठक को उनकी तबीयत का तथा उनके चरित्र का

अच्छा ज्ञान हो जाता है, और उसमें उनके विषय की जानकारी प्राप्त करने की उत्सुकता पैदा हो जाती है।

सुबोधता उनकी शैली में इस कारण है कि वे प्रायः बोल-चाल की भाषा लिखते हैं जिसमें मौके पर मुहावरों का प्रयोग होता है या प्रसंग के अनुसार चुभते हुए उद्धरण होते हैं। भाव-पूर्णता अथवा सजीवता लाने में भी यही युक्ति काम देती है। एक उदाहरण लीजिए:---

“यह कलजुग है। बड़े बड़े बाजपेयी मदिरा पीते हैं। पीछे से बल, बुद्धि, धर्म, धन, मान, प्रान सब स्वाहा हो जाय तो बला से! पर थोड़ी देर उसकी तरंग में 'हाथी मच्छर, सूरज जुगनू' दिखाई देता हैॱॱॱॱॱॱ।"

वाचकों के साथ पारस्परिक मैत्रीभाव स्थापित करने में प्रतापनारायण जी की सहृदयता, स्पष्टवादिता तथा दिल्लगीबाजी सहायक होती हैं। इन्हीं की प्रचुरता के कारण उनके लेखों को पढ़ते समय हमारे दिल को बड़ा मजा मिलता है और उनके लिए वही भाव उत्पन्न होते हैं जो किसी मनोरंजक वार्तालाप करने वाले पुरुष के प्रति होते हैं।

उनकी शैली में एक और उत्तमता है। उनकी सूझ तो अद्वितीय है ही। पर, साथ ही साथ वाचकों को चकित करने की शक्ति भी उनमें है। अर्थात् , कभी कभी किसी विषय पर निबंध लिखते हुए वे अपने विचारों को ऐसा विचित्र घुमाव-फिराव दे देते हैं कि पढ़नेवाले का मन खिल सा उठता है।
उदाहरण लीजिए:---

"यह तो समझिए यह देश कौन है? वही न? जहाँ पूज्य मूर्त्तियाँ भी दो एक को छोड़ चक्र वा त्रिशूल व खड्ग वा धनुष से खाली नहीं हैं; जहां धर्म-ग्रंथ में भी धनुर्वेद मौजूद है, जहां शृंगार रस में भी भ्रू-चाप और कटाक्ष-बाण, तेग़े अदा व कमाने अब्र का वर्णन होता है। यहां से लड़ाई भिड़ाई का सर्वथा अभाव हो जाना मानो सर्वनाश हो जाना है। अभी हिंदुस्तान से किसी वस्तु का निरा अभाव नहीं हुआ। सब बातों की भांति वीरता भी लस्टम पस्टम बनी ही है। पर क्या कीजिये, अवसर न मिलने ही से 'बांधे बछेड़ा कट्टर होइगे बइठे ज्वान गये तोंदियआय'।"

('दशहरा और मुहर्रम')

कैसा चुभता हुआ व्यंग है और अंत में कैसी उपयुक्त कहावत है! उनके लेखों के शीर्षक भी क्या ही विचित्र होते थेः--- 'मरे का मारैं साह मदार', 'ऊंच निवास नीच करतूती', 'घूरे के लत्ता बिनैं कनातन का डौल बाँधै', 'आप', 'ट', 'द' इत्यादि। यही नहीं इन अजीब शीर्षकों को ले कर कभी कभी वे प्रकांड निबंध-लेखक की सी काल्पनिक उड़ान लेते हैं जिससे उनकी स्वाभाविक सूझ का पता लगता है।

यह तो हुई मिश्र जी के लेखों की समीक्षा। अब देखना है कि हिंदी-गद्य के क्रमिक विकास में उनकी शैली का क्या स्थान है।
अच्छा ज्ञान हो जाता है, और उसमें उनके विषय की जानकारी प्राप्त करने की उत्सुकता पैदा हो जाती है।

सुबोधता उनकी शैली में इस कारण है कि वे प्रायः बोल- चाल की भाषा लिखते हैं जिसमें मौके पर मुहावरों का प्रयोग होता है या प्रसंग के अनुसार चुभते हुए उद्धरण होते हैं। भाव- पूर्णता अथवा सजीवता लाने में भी यही युक्ति काम देती है। एक उदाहरण लीजिए:-

“यह कलजुग है। बड़े बड़े बाजपेयी मदिरा पीते हैं। पीछे से बल, बुद्धि, धर्म, धन, मान, प्रान सब स्वाहा हो जाय तो बला से ! पर थोड़ी देर उसकी तरंग में ‘हाथी मच्छर, सूरज जुगनू’ दिखाई देता है़······।”

वाचकों के साथ पारस्परिक मैत्रीभाव स्थापित करने में प्रतापनारायण जी की सहृदयता, स्पष्टवादिता तथा दिल्लगीबाज़ी सहायक होती हैं। इन्हीं की प्रचुरता के कारण उनके लेखों को पढ़ते समय हमारे दिल को बड़ा मज़ा मिलता है और उनके लिए वही भाव उत्पन्न होते हैं जो किसी मनोरंजक वार्तालाप करने वाले पुरुष के प्रति होते हैं।

उनकी शैली में एक और उत्तमता है। उनकी सूझ तो अद्वितीय है ही। पर, साथ ही साथ वाचकों को चकित करने की शक्ति भी उनमें है। अर्थात्, कभी कभी किसी विषय पर निबंध लिखते हुए वे अपने विचारों को ऐसा विचित्र घुमाव- फिराव दे देते हैं कि पढ़नेवाले का मन खिल सा उठता है।
उदाहरण लीजिए :——

“यह तो समझिए यह देश कौन है ? वही न ? जहाँ पूज्य मूर्तियाँ भी दो एक को छोड़ चक्र वा त्रिशूल व खड्ग वा धनुष से खाली नहीं हैं। जहां धर्म-ग्रंथ में भी धनुर्वेद मौजूद है, जहां श्रृंगार रस में भी भ्रू -चाप और कटाक्ष-बाण, तेगे़ अदा व कमाने अव्र का वर्णन होता है। यहां से लड़ाई भिड़ाई का सर्वथा अभाव हो जाना मानो सर्वनाश हो जाना है। अभी हिंदुस्तान से किसी वस्तु का निरा अभाव नहीं हुआ। सब बातों की भांति वीरता भी लस्टम पस्टम बनी ही है। पर क्या कीजिये, अवसर न मिलने ही से ‘बांधे बछेड़ा कट्टर होइगे बइठे ज्वान गये तोंदिआय’।"

('दशहरा और मुहर्रम')

कैसा चुभता हुआ व्यंग है और अंत में कैसी उपयुक्त कहावत है ! उनके लेखों के शीर्षक भी क्या ही विचित्र होते थे:—— ‘मरे का मारै साह मदार’, ‘ऊंच निवास नीच करतूती’, ‘घूरे के लत्ता बिनैं कनातन का डौल बाँधै’, ‘आप’, ‘ट’, ‘द’ इत्यादि। यही नहीं इन अजीब शीर्षकों को ले कर कभी कभी वे प्रकांड निबंध-लेखक की सी काल्पनिक उड़ान लेते हैं जिससे उनकी स्वाभाविक सूझ का पता लगता है।

यह तो हुई मिश्र जी के लेखों की समीक्षा। अब देखना है कि हिंदी-गद्य के क्रमिक विकास में उनकी शैली का क्या स्थान है। उनसे पहले हिंदी में गद्य-साहित्य नहीं होने के बराबर था। जो था वह बालकृष्ण जी भट्ट के शब्दों में ‘बहुत कम और पोच’ था। कुछ पहले उन्हीं के समय राजा शिवप्रसाद ने अपनी उर्दू-मिली हुई भाषा लिख कर हिंदी और उर्दू के बीच में ‘पुल’ बनाने का साहसपूर्ण प्रयत्न किया था। राजा साहब के इस प्रयत्न से हिंदी-गद्य को एक नयी स्फूर्ति अवश्य मिली, क्योंकि उनके पहले वह निर्जीव सा था।

प्रतापनारायण जी ने बालकृष्ण जी भट्ट के साथ मिल कर राजा साहब के अत्यधिक उर्दूपन को रोकने का निश्चय किया ! उसके बदले में मिश्र जी ने ग्रामीणता, हास्य तथा व्यंग की मात्रा बढ़ाई। इन तीनों के रासायनिक संयोग से एक प्रौढ़,. सुबोध, तथा सजीव शैली आविर्भूत हुई। यह एक स्पष्ट सिद्धांत है कि किसी भाषा के गद्य को परिमार्जित और लचीला बनाने के लिए उसमें हास्य तथा व्यंग इन दोनों उपादानों की ज़रूरत पड़ती है। इनके बिना भाषा शुष्क और परिमित-प्रयोग रहती है।

इन गुणों के साथ प्रतापनारायण ने घरेलू मुहावरेदार. भाषा का भी संमिश्रण किया है जिससे उनकी शैली में सजीविता आ गई है। उनके समकालीन किसी भी लेखक की भाषा का नित्य-प्रति की बोलचाल की भाषा से इतना घनिष्ट संबंध नहीं है जितना उनका। अस्तु हिंदी-गद्य को वाग्धारा से संयोजन करके उसकी भावी उन्नति का पथ दिखाने में ही उनका स्थान

साहित्य के इतिहास में ऊँचा रहेगा।

प्रतापनारायण की कविता और उनके कविता-विषयक विचार

पंडित जी ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली दोनों में कविता करते थे। परंतु उनका यह मत था कि "जो लालित्य, जो माधुर्य, जो लावण्य कवियों की उस स्वतंत्र भाषा में है जो ब्रजभाषा बुंदेलखंडी, बैसवारी और अपने ढंग पर लाई गई संस्कृत व फारसी से बन गई है, जिसे चंद से ले के हरिश्चंद्र तक प्रायः सब कवियों ने आदर किया है उसका सा अमृतमय चित्त- चालक रस खड़ी और बैठी बोलियों में ला सके यह किसी कवि के बाप की मज़ाल नहीं।"

उनकी उत्तमोत्तम कवितायें लगभग सब ब्रजभाषा में ही हैं। जब कभी व्यंग करना होता था अथवा हँसोड़पन सूझता था तो वे उर्दू की शेरें लिखा करते थे और जिस उर्दू को वे 'सब भाषाओं का करकट' कहा करते थे उसी का व्यवहार करते थे। कविता के लिए वे उसे बुरा नहीं समझते थे और एक जगह कहते हैं किः- "कविता के लिए उर्दू बुरी नहीं है। कवित्व-रसिकों को वह भी वार-ललना के हाव-भाव का मज़ा देती है।"

उनकी खड़ी बोली की कविताएँ अधिकतर सामयिक अथवा शिक्षाप्रद विषयों पर होती थीं। मिश्र जी की कवित्व-

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।