प्रताप पीयूष/प्रतापनारायण की कविता और उनके कविता-विषयक विचार

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प्रतापनारायण की कविता और उनके कविता-विषयक विचार

पंडित जी ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली दोनों में कविता करते थे। परंतु उनका यह मत था कि "जो लालित्य, जो माधुर्य, जो लावण्य कवियों की उस स्वतंत्र भाषा में है जो ब्रजभाषा बुंदेलखंडी, बैसवारी और अपने ढंग पर लाई गई संस्कृत व फारसी से बन गई है, जिसे चंद से ले के हरिश्चंद्र तक प्रायः सब कवियों ने आदर किया है उसका सा अमृतमय चित्त- चालक रस खड़ी और बैठी बोलियों में ला सके यह किसी कवि के बाप की मज़ाल नहीं।"

उनकी उत्तमोत्तम कवितायें लगभग सब ब्रजभाषा में ही हैं। जब कभी व्यंग करना होता था अथवा हँसोड़पन सूझता था तो वे उर्दू की शेरें लिखा करते थे और जिस उर्दू को वे 'सब भाषाओं का करकट' कहा करते थे उसी का व्यवहार करते थे। कविता के लिए वे उसे बुरा नहीं समझते थे और एक जगह कहते हैं किः- "कविता के लिए उर्दू बुरी नहीं है। कवित्व-रसिकों को वह भी वार-ललना के हाव-भाव का मज़ा देती है।"

उनकी खड़ी बोली की कविताएँ अधिकतर सामयिक अथवा शिक्षाप्रद विषयों पर होती थीं। मिश्र जी की कवित्व-
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शक्ति का पता तो उनकी ब्रजभाषा की कविताओं से ही लगता है। खड़ी-बोली तथा ब्रजभाषा के बीच में जो आजकल खींचा-तानी हो रही है उसके विषय में उन्होंने स्वतंत्र विचार प्रकट किये हैं। खड़ी बोली को उच्चभाव-युक्त कविता के लिए तथा भिन्न भिन्न छंदों के लिए वे सर्वथा अनुपयुक्त मानते थे:---

"सिवाय फ़ारसी छंद और दो-तीन चाल की लावनियों के और कोई छंद उसमें बनाना भी ऐसा है जैसे किसी कोम-लांगी सुंदरी को कोट, बूट पहिनाना।"

वास्तव में उनका वह निश्चित सिद्धांत था कि कविता की भाषा में और किसी समय की साधारण बोलचाल की भाषा में काफी अंतर होना चाहिए क्योंकि 'कविता के कर्ता और रसिक होना सब का काम नहीं है। यदि सबको समझाना मात्र प्रयोजन है तो सीधा सीधा गद्य लिखिये।'

कवि का काम अपने हृदय में उद्भूत कोमल भावों को प्रकट करना है और अपनी आत्मा को आनंदानुभव कराना है। जिस प्रकार उसकी सी भावुकता सब में नहीं होती उसी प्रकार उसका सा मनोहारी शाब्दिक चमत्कार किसी दूसरे की भाषा में कैसे मिल सकता है। ठीक इसी तर्क के आधार पर कवि को खड़ी बोली का प्रयोग करने पर बाधित करना मिश्र जी के हिसाब से अनुचित है। तभी वे कहते हैं:-

"जो कविता नहीं जानते वे अपनी बोली चाहे खड़ी रक्खें चाहे कुदावें, पर कवि लोग अपनी प्यार की हुई बोली
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पर हुक्म चला के उसकी स्वतंत्र मनोहरता का नाश नहीं करने के। जो कविता के समझने की शक्ति नहीं रखते वे सीखने का उद्योग करें। कवियों को क्या पड़ी है कि किसी के समझाने को अपनी बोली बिगाड़ें।"

स्पष्टतया, प्रतापनारायण ने यह बड़ी विवादास्पद बात कह डाली है। ब्रजभाषा के लालित्य को स्वीकार करना और बात है, किंतु उसी को कवितोपयुक्त मानने में हठ करना दूसरी बात है। आजकल खड़ी बोली में अच्छी से अच्छी रचनाएँ धड़ाधड़ निकल रही हैं। पर, उनके लिए यह कहना अनिवार्य था। क्योंकि उनका ब्रजभाषा का प्रेम तथा पक्षपात स्वाभाविक था। वे कानपुर के प्रसिद्ध कवि पंडित ललिताप्रसाद जी त्रिवेदी के चेले थे तथा बाबू हरिश्चंद्र के उपासक थे। इसके सिवाय वह जमाना भी ब्रजभाषा की कविता का था। वे स्वयं रसीली तबीयत के आदमी थे। उनकी भावुकता, उनकी प्रेम-पूर्णता ब्रजभाषा की कविता से ही तृप्त हो सकती थी।

मिश्र जी की समस्त काव्य-रचनाएँ तीन तरह की हैं:---

१. वह कविता जो वे 'स्वांतःसुखाय' लिखते थे।

२. सामयिक।

३. उपदेश-पूर्ण।

पहले ढंग की कविताओं में 'बुढ़ापा', 'साधो मनुवाँ अजब दिवाना', 'शरणागत पाल कृपाल प्रभो', 'मन की लहर' की
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लावनियाँ तथा अन्य बहुत स्फुट कवित्त और सवैये हैं। 'बुढ़ापा' में बुढ़ापे की शारीरिक तथा मानसिक जर्जरता का जो सजीव वर्णन है वह किसे भूल सकता है?

सामयिक रचनाओं में 'नया संवत्सर', 'ब्रैडला स्वागत', 'युवराज-स्वागत', 'विक्टोरिया की जुबली', 'कानपुर-माहात्म्य' शीर्षक आल्हा आदि हैं। ये सब अपने ढँग के काफी अच्छे हैं।

शिक्षाप्रद कविता कहीं कहीं बड़ी उच्चकोटि की है। 'तृप्यताम्', 'बाँ बाँ करि तृण दाबि दाँत सों दुखित पुकारत गाई है', 'बसंत', 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान', 'क्रंदन', 'शरणागत पाल कृपाल प्रभो' इत्यादि बड़ी उत्तम तथा भावपूर्ण हैं।

इस प्रसंग में अधिक कहने का स्थान नहीं है। आगे चल कर उनकी कविताओं का जो संग्रह है और उन पर छोटी छोटी जो टिप्पणियाँ की गई हैं उनसे वाचकों का मनोविनोद होगा और उनसे वे स्वयं प्रतापनारायण जी की नैसर्गिक सरसता का अंदाज़ा कर सकेंगे।

हाँ, इतना कहेंगे कि मिश्र जी उस प्रकार के कवियों में हैं जिनमें जन्म-सिद्ध सहृदयता तथा काव्योचित मार्दव रहता है, परंतु साथ ही साथ जिनके चित्त में सामाजिक हित-प्रेरणा के भाव अधिक बलवान रहते हैं। एवं, यदि वे ईश्वर-दत्त काव्य-प्रतिभा का उपयोग करते हैं तो इस उद्देश्य से ही करते हैं कि अपनी कृतियों द्वारा समाज का नैतिक कल्याण हो। इस
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नैतिक उद्देश्य की प्रबलता के कारण ऐसे पुरुष कोरे आत्मानंद के लिए कविता कम करते हैं।

प्रतापनारायण जी में यदि शिक्षा देने की इच्छा इतनी प्रबल न रही होती तो संभव है कि वे ब्रजभाषा के एक बड़े कवि हुए होते और सचमुच भारतेंदु के जोड़ के होते।

'छोटे छोटे मोटे कवि हम भी हैं और नागरी का कुछ दावा भी रखते हैं। उनका यह कहना केवल उनकी नम्रता का द्योतक है। हिंदी-साहित्य के निर्माणकर्ताओं में उनका स्थान ऊँचा रहेगा और उनकी सहृदयता, विनोद-प्रियता, उनका लिखन-चातुर्य ये सब बातें चिरस्मरणीय रहेंगी।



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साहित्यिक निबंध

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