प्रताप पीयूष/स्वामी दयानन्द की मृत्यु पर ।

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स्वामी दयानन्द की मृत्यु पर ।
करुणानिधि कहवाय हाय हरि आज कहा यह कीन्हों।
देशउधार जतन तत्पर वर पुरुषरतन हरि लीन्हों।।
जो ऐसेहि बोझ लगत हो काल-चक्र तव हाथे ।
कस न गिराय दियो काहू भारत-कलंक के माथे॥
जिन निजसरबसु केवल हम हित तजत बिलम्ब न लाई।
तिनसों हाय हमैं बिछुरावत तुम कहँ दया न आई ।।
परै अचेत मोह-निद्रा में जे नित सबहिं जगावैं।
कछु कछु आँख खुलै पर उनको हाय कहां हम पावै ।।
भरत भूमि अब कहा करैगी ? इन धूतन की आशा।
जिन निज पापी पेट हेत सब आरज गौरव नाशा ।।
सुनियत शत शत बरस जियहिं बहु मानुष सब गुन हीना।
स्वामी दयानन्द सरस्वति की तो वैसहु बहुत रहीना ॥
यूरुप अमरीका लगि हा ! हा! को अब नाम करैगो ।
श्रुति कलङ्क गो दुख द्विज दुर्गुन को अब हा न हरैगो॥
गारी खाय अनादर सहि के विद्या धर्म प्रचारै ।
ऐसो कोउ न दिखाय हाय स्वामी तौ स्वर्ग सिधारै ॥
उनइस सै चालिस सम्बत की बैरिन भई दिवारी ।
दीनबन्धु उलटी कीन्हीं तुम हाय दियो दुख भारी ।।
कहँ लगि कोउ आंसुन को रोकै कहँ लगि मनु समझावै ।

[ १८३ ]

ऐसी कठिन पीर में कैसहु धीरज हाय न आवै॥
देशभक्त दुखिया बुध जन के जिय ते कोऊ पूछे।
तुम तौ अपने मन के राजा सब दुख सुख ते छूछे॥
तुम जो कछू करो सो नीको यह तो हमहूँ जाने।
पै तुम्हरे प्रताप की प्यारे ! बुधि नहिं आज ठिकाने॥
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भारतेन्दु हरिश्चंद्र के स्वास्थ्य लाभ
के उपलक्ष्य में।

(कसीदा)
अहा हा क्या मज़ा है क्या बहार बारिश आई है यह।
फस्ले फ़रहत अफ़ज़ा कैसी सबके जी को भाई है॥
जिधर देखो तमाशाए तरावत बख्श है तुर्फ़ा।
जिसे देखो अजब एक ताज़गी चिहरे पै छाई है॥
इधर जंगल में मोरों को चढ़ी है नाचने की धुन।
उधर गुलशन में कोयल को सरे नरमा सराई है।
कहे गर इन दिनों वायज कि मै पीना नहीं अच्छा।
तो बेशक मस्त कह बैठे कि तुमने भांग खाई है॥
किसी की कोई कुछ पर्वा नहीं करता ज़माने में।
सब अपने रंग माते हैं कुछ ऐसी बू समाई है॥

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