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प्रेमसागर/१४ ब्रह्मा-वत्सहरण

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ४७ से – ४९ तक

 

चौदहवां अध्याय

श्रीशुकदेव बोले―हे राजा, ऐसे अघासुर को मार श्रीकृष्णचंद बछड़े घेर, सखाओं को साथ ले आगे चले। कितनी एक दूर जाय कदम की छाँह में खड़े हो बंशी बजाय सब ग्वालो को बुलाय कहा―भैया यह भली ठौर है, इसे छोड़ आगे कहाँ जाये, बैठो यही छाकें खाँय। सुनते ही विन्होने बछड़े तो चरने को हाँक दिये और आक, ढाक, बड़, कदम, कँवल के पात लाय, पत्तल दोने, बनाय, झाड़ बुहार श्रीकृष्ण के चारो ओर पाँति की पाँति बैठ गये, औ अपनी अपनी छाकें खोल खोल लगे आपस में परोसने।

जब परोस चुके तब श्रीकृष्णचंद ने सबके बीच खड़े हो पहले आप कौर उठाय खाने की आज्ञा दी। वे खाने लगे तिनमे मोर मुकुट धरे, बनमाले गरे, लकुट लिये, तृभंगी छब किये, पीतांबर पहने, पीतपट ओढे, हँस हँस श्रीकृष्ण भी अपनी छाक से सब को खिलाते थे, और एक एक के पनवारे से उठाय चाख चाख खट्टे मीठे तीते चरपरे का स्वाद कहते जाते थे औ विस मंडली में ऐसे सुहावने लगते थे कि जैसे तारों में चंद्रमा। तिस समै ब्रह्मा आदि सब देवता अपने अपने विमानो में बैठे, आकाश में ग्वाल-मंडली का सुख देख रहे थे- कि तिनमें से आय ब्रह्मा सब बछड़े चुराय ले गया, और यहाँ ग्वाल बालो ने खाते खाते चिंता कर श्रीकृष्ण से कहा―भैया, हम तो निचिताई से बैठे खाय रहे है, न जानिये बछड़े कहाँ निकल गये होयँगे।

तब ग्वालन सो कहत कन्हाई। तुम सब जेवन रहियो भाई।
जिन कोऊ उठै करै औसेर। सब के बछरा ल्याऊँ घेर॥

ऐसे कह कितनी एक दूर बन में जाय जब जाना कि यहाँ से बछड़े ब्रह्मा हर ले गया, तब श्रीकृष्ण वैसे ही और बनाय लाये। यहाँ आय देखे तो ग्वाल बालों को भी उठाथ ले गया है। फिर इन्होने वे भी जैसे थे तैसे ही बनाये, और साँझ हुई जान सबको साथ ले ब्रंदावन आये। ग्वालबाल अपने अपने घर गये पर किसी ने यह भेद न जाना कि ये हमारे बालक औ बछड़े नहीं, बरन और दिन दिन माया बढ़ती चली।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव बोले―महाराज, वहाँ ब्रह्मा ग्वाल बाल बछड़ों को ले जाय एक पर्चत की कंदरा में भर, विसके मुँह पर पत्थर की सिला धर भूल गया। और यहाँ श्रीकृष्णचंद नित नई नई लीला करते थे। इसमें एक वर्ष बीत गया तद ब्रह्मा को सुध हुई तो मन में कहने लगा कि मेरा तो एक पल भी नहीं हुआ पर नर का बरष हो गया, इससे अब चल देखा चाहिये कि ब्रज में ग्वाल बाल बछड़ो बिन क्या गति भई।

यह बिचार उठकर वहाँ आया जहाँ कंदरा मैं सबको मुँद गया था। सिला उठाय देखे तो लड़के औ बछड़े घोर निद्रा में सोये पड़े है। वहाँ से चल ब्रंदावन में आय बालक औ बछरू सुब जों के तो देख अचंभे हो कहने लगा―कैसे ग्वाल बच्छ यहाँ आये, कै ये कृष्ण नये उपजाये। इतना कह फिर कंदरा को देखने गया। जितने में वह वहाँ से देख कर आवे, तितने बीच यहाँ श्रीकृष्णचंद ने ऐसी माया की कि जित्ते ग्वाल बाल औ बछड़े थे सब चतुर्भुज हो गये। और एक एक के आगे ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, हाथ जोड़े खड़े हैं।

देख बिरंच चित्र कौ भयौ। भूल्यौ ज्ञान ध्यान सब गयौ॥
जनो पृषान देबी चौमुखी। भई भक्ति पूजा बिन दुखी॥

औ डरकर नैन मूँद लगा थरथर काँपने, जब अंतरजामी श्रीकृष्णचंद ने जाना कि ब्रह्मा अति व्याकुल है तब सबका अंस हर लिया, और आप अकेलेई रह गये, ऐसे कि जैसे भिन्न भिन्न बादल एक हो जाँय।



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